पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७६९

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( १६५०) यौगवासिष्ठ । स्थित होते हैं तब जीव शांतिको प्राप्त होता है, अरु जो प्राण स्थित नहीं होते तब जीव जागृत स्वप्न सुषुप्ति तीनों अवस्थाविषे भटकता है, जागृत स्वप्न सुषुप्ति अवस्था भिन्न भिन्न अाती है सो सुन । हे वधिक । जब यह पुरुष अन्न भोजन करता है, सो अन्नजागृत्वाली नाडीके ऊपर जाय स्थित होता है, तब वह नाडी रोकी जाती है, तिसकर सुषुप्ति आती है, जिन नाडीविषे चित्तकी वृत्ति गई हुई जागृत् जगत्को देखती है, सो जागृत नाडी कहाती हैं, तिनके ऊपर अन्न जाय स्थित होता है, अरु चित्तसत्ता जो चित्तविषे प्रतिबिंबित है, सो चित्तनाडी तिसके तले आय जाती है, तब प्राणवायु भी इस नाडीविषे ठहर जाता है, अरु चित्तस्पंद भी ठहर जाता है, तब सुषुप्ति होती है, अरु जो पित्त बहूत होता है, तब सूर्य अग्नि आदिक उष्ण पदार्थ स्वप्नविषे देखता है, . अरु जब वह अन्न पचता है, अरु उन नाडीविषे प्राण जाते हैं, तब स्वप्न अवस्था आती हैं, जब जलके शोषणेको वायु बहता होता है, तब जीव स्वप्नविषे उडता है, अरु जो कफ बहुत होता है, तब किसको देखता है, नदियाँ अरु ताल देखता है, तिनविषे जाता है, डूबता है, जब उष्ण नाडीविषे अन्न जल जाय पहुँचता है, तब जागृत अवस्था होती है, इसप्रकार जीव तीनों अवस्थाविधे भटकता है, जगत् न कछु अंरत है, न बाहर है, केवल अद्वैत सत्ता ज्योंकी त्यों है, तिसके प्रमादकारकै चित्तकी वृत्ति जब बहिर्मुख फुरती है, तब जगत्को जाग्रत् कर देखता हैं, अरु जब बाहिरकी इंद्वियोंको त्यागि करिकै अंतर आता है, तब अंतर स्वप्नजगत्को देखता है, अरु जब अपने स्वभावविषे स्थित होता है, तब अपर कल्पना मिटि जाती है, सर्व ब्रह्मही भासता है। ताते सर्व कल्पनाको त्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित होहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जागृत्स्वप्नसुषुप्तिविचारो नाम द्विशताधिकद्वात्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३२॥