पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७०

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जागृत्स्वमसुषुप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६५१ ) द्विशताधिकव्यत्रिंशत्तमः सर्गः २३३. जागृत्स्वप्नसुषुप्तिवर्णनम् ।। मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! यह तीनों अवस्था होती हैं, अरु जाती हैं, इनके अनुभव करनेवाली जो सती है, सो आत्मसत्ता है, अरु सदा एकरस है, जिस पुरुषको अपने स्वरूपका अनुभव भया है, तिसको अपना किंचन भासता है, अरु जिसको प्रमाद है, तिसको जगत् भासता है, अरु यह जगत् चित्तका कल्पा हुआ है, इंद्रियोंका जिसको प्रमाद है, तिसको जगत् भासता है, अरु यह जगत् चित्तका कल्पा हुआ है, जब इंद्रियां विषयके सन्मुख होती हैं, तब जगत्को देखती हैं, तिस संकल्प जगत्को देखिकार रागद्वेषवती होती हैं, बहुरि इद्रियके अर्थको पाइकार जीव हर्ष अरु शोकवान होता है॥ हे वधिक। जिस चिद् अणुका इंद्रियसाथ संबंध है, तिसको संसारका अभाव नहीं होता, नेत्र त्वचा जिह्वा नासिका श्रोत्र-कारकै आपको देखता स्पर्श करता रस लेता हूंघता सुनता मानता है, तब संसारी होकर देखता दुःख पाता है, जब इनके अर्थको त्यागिकै अपने स्वभावकी ओर आता है, तब सर्व जगत्को आत्मरूप जानिकारि सुखी होता है ॥ है। वधिक । चित्तके फुरणेका नाम जगत् हैं, 'अरु चित्तके स्थित होनेका नाम ब्रह्म है, जगत् अपर कछु वस्तु नहीं इसका आभास है, चित्तके आश्रय सब नाडियां हैं, तिनविषे स्थित होकर जीव तीनों अंवस्थाको देखता है, वास्तवते यह जीव चिदाकाश आत्मा है, अज्ञानकार जीवसंज्ञाको प्राप्त भया है । हे वधिक ! ओज़ धातु जो है हृदय तिसविषेचिद् अणु स्थित होकर दीपक ज्योतिवत् प्रकाशता है, तिस ओजके आश्रय सब नाडियां हैं, सो अपने रसको ग्रहण करती हैं, जब यह प्राणी भोजन करता हैं, अरु अन्न जागृत नाडीविषे पूर्ण होता है, तब जाग्रतका अभाव हो जाता है, चित्तकी वृत्ति अरु प्राण अनेजानेते रहित हो जाते हैं, वह नाडी मूदी जाती है, बहुरे जब कफनाडीविषे प्राण ऊरते हैं, तब स्वप्न भासता है ॥ हे वधिक ! जब इंद्रियके