पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७२

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जागृत्स्वमसुषुप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६५३) वात पित्त कफ जिसके स्थानविषे अपरके स्वभावको लेते हुए जाते हैं, तबलग समान क्षोभ भासता है, अरु जब केवल वातका क्षोभ होता है, तब महाप्रलयकालके पवन चलते हैं, अरु पहाडपर पहाड गिरते, भूकंप आते हैं, इसते आदि लेकर क्षोभ होते हैं, अरु जब कफका क्षोभ होता है, तब समुद्र उछलते हैं अरु पित्तकरि अग्नि लगती है, महाप्रलयकी नाई तत्त्व क्षोभवान होते हैं, जब प्राण जागृत् नाड़ीविषे जाते हैं, अरु वह अन्नकार पूर्ण होती है, तब जीव उसके नीचे आई जाते हैं, जैसे कंधके नीचे दर आवै, जैसे पाषाणकी शिलाविषे कीट आय जावें, जैसे काष्ठकी पुतली काष्ठविषे होवै, जैसे इनविषे अवकाश नहीं रहता, तैसे तिस नाडीविषे फुरणेका अवकाश नहीं रहता, रुक जाती है, तब इसको सुषुप्ति होती है, जब कछु अन्न पचता है, तब चित्तसंवित् अपने अंतर स्वप्न देखती है, जिसको सततका विकार विशेष होता है; तिसीका कार्य देखता है, जब अन्न अरु जल पचता है, तब फिर जाग्रत् जगत्को देखता है, अरु जब जाग्रत् अरु स्वप्न दोनोंका बल सम होता है, तब दोनोंको देखता है, अरु अनुभव करता है । हे वधिक । इस प्रकार तीनों अवस्था होती, अरु मिटि जाती हैं, सो तीनों गुणकार होती हैं। ईनका द्रष्टा इनको अनुभव करनेवाला है, सो गुणते अतीत है, अरु सर्वका आत्मा है, यह जगत् अरु स्वप्नजगत् संकल्पमात्र है, बना कछु नहीं, ब्रह्मसत्ताही किंचन कारकै जगतरूप हो भासती है, परंतु अज्ञानी तिसको जगत् जानते हैं, जगतको सत् जानिकरि इष्ट अनिष्टविषे राग द्वेष करते हैं, इष्ट रागसंयुक्त ग्रहण करते हैं, अनिष्टकी प्राप्तिविषे द्वेष करते हैं, जब बाह्यकी इंद्रियां सुषुप्ति हो जाती हैं, तब अंतर स्वमविषे भटकता है, तिसविषे सूर्य, चंद्रमा, वन, फूल, फल, वृक्ष आदिक जगतुको देखता है, अरुजब स्वरूपका अनुभव होता है, तब सर्व भटकना मिटि जाता है, अरु शांतिपदको प्राप्त होता है ॥ इति श्रीयोगवा० निर्वाण प्रजागृत्स्वप्नसुषुप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिकत्रयस्त्रिंशत्तमःसर्गः ॥२३३॥