पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७३

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(१६५४) यौगवासिष्ठ । द्विशताधिकचतुत्रिंशत्तमः सर्गः २३४. सुषुप्तिवर्णनम् । |वधिक उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! उस पुरुषके हृदयविषे जो तुम जगत् अरु प्रलय देखी थी, तिसके अनंतर क्या होता भयो, अरु क्या अवस्था देखी ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तिसके चिंत्तस्पंदविषे मैं देखता भया, कि बड़े बड़े पहाड प्रलयकी वायुसाथ सूखे तृणकी नई उडते हैं, अरु पाषाणकी वर्षा होती है, इस प्रकार मैं प्रलयके क्षोभको देखत भया. मेरे देखते देखते जागृत्वाली नाडीविषे अन्न आनिस्थित हुआ, तह जो अन्नके दाणे गिरें, सो पर्वतवत् भासें तब चित्तस्पंद जो संवित् थी सो रुक गई, तिसविषे मैं था सो तामस नरक विषे जाय पडा, मानो वहाँ मैं भी जड़ हो गया, सुझको ज्ञान कछु न रहा,जब कछु अन्न पचा अरु कछु अवकाश हुआ, तब प्राणका स्पंद फुरा, जैसे वायु निस्पंद हुई स्पंद होकर चले तैसे वहाँ संवित् फुरी, तब सुषुप्ति सो दृश्य होकर भासने लगी, कैसी है, ज्यों आत्मा द्रुष्टाही दृश्यरूप होकार भासने लगा, परंतु अपर कछु बना नहीं, जैसे अग्नि अरु उष्णताविषे कछु भेद नहीं, जैसे जल अरु द्रवताविषे कछु भेद नहीं, जैसे मिरच अरु तीक्ष्णताविषे भेद नहीं, तैसे आत्मा अरु दृश्यविषे कछु भेद नहीं ॥ हे वधिक । इसप्रकार मैं जगत्को देखता भया, सुषुप्ति जाग्रत दृश्य सो दृश्य उपजी मुझको दृष्ट आई,जैसे कुंआरी कन्याते संतान उपजै तैसे उपजत भई ॥ वधिक उवाच ॥ हे मुनीश्वर ! तुमने जो कहा सुषुप्ति आत्माते दृश्य उपजी सो सुषुप्ति क्या है, जिसविषे तुम दब गये थे वही सुषुप्ति है। जिसते जगत उपजता है, सो मुझको कहौ ॥ मुनीश्वर उवाच ।। हैवधिक! ( सर्व संबंधका अभाव है, केवल आत्मसात्तते इतर कछु कहन नहीं, तिसका नाम सुषुप्ति है, तिसविषे जो ऊरणा हुआ तिस ऊरणेके तीन पर्याय हैं, सो सब सन्मात्रके हैं, जो वस्तु स्वरूप है, अरु देश काल वस्तुके परिच्छेदते रहित है, अरु तीनों के परि