पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७४

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सुषुप्तिवर्णन-निणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६५५) च्छेदते रहित हैं, सो सन्मात्र हैं, तिस सन्मात्रविषे अपर कछु बना नहीं, तिसके सब पर्याय हैं, सो वही रूप हैं, वही सत् वस्तु अपने आपविष विराजता है, कदाचित् अन्यथा भावको नहीं प्राप्त होता, किंचनविषे भी वहीरूप है, अरु अकिंचनविषे भी वहीरूप हैं, आत्माहीका नाम सुषुप्ति है, तिसीते सब जगत् होता है,तिस सत्ताका नाम सुषुप्ति है, वही स्वप्न दृश्य होकार भासता है, उसते इतर कछु नहीं; जैसे वायु निस्पंद स्पंदविषे वहीरूप है, तैसे आत्मा दोनों अवस्थाविषे एकही है । हे वधिक ! हमसारखेकी बुद्धिविषे अपर कछु बना नहीं, सदा ज्योंका त्यों स्थित है, शरीरके आदि भी अंत भी वहीरूप है, तिसविषे जो किंचनद्वारा कार भासा है, सो भी वहीरूप है, जैसे सुषुप्ति अवस्थाविषे मुझको अद्वैतका अनुभव होता है, अपर कहूँ ऊरणा नहीं होता, तिससों जो स्वप्न अरु जागृत भासि आती है, सो भी वहीरूप हैं, जिसते फुरती है। अरु जिसविषे भासती है, तिसते इतर कछु नहीं, ताते यह जगत् आत्माका किंचन है सो आत्मरूप है, जब तू जागिकारि देखेगा, तब तुझको आत्मरूप भासैगा, जैसे स्वमपुर अरु संकल्पनगरका अनुभव होता है, अरु आकाशरूप है, वैसे यह जगत् आकाशरूप है, शक्ति भी वही है, सर्वशक्ति आत्मा हैं, निष्किचन भी वही है, अरु किंचन भी वही है, अरु शून्य भी वही है, जो वाणीते कहा नहीं जाता तिम् अवस्थाविषे ज्ञानी स्थित है ॥ हे वधिक ! ज्ञानवानको अनुभव प्रत्यक्ष कारकै अनुभवरूपही भासता है, जैसे स्वप्नविषे जीव अरु ईश्वर भिन्न भिन्न भासता है, उपाधिकरिकै अनुभव भेद भासता है, वास्तवते भेद कछु नहीं, तैसे जागृविषे अज्ञान उपाधिकारकै भेद भासता है, स्वरूपते आत्मा एकरूप है, जब अज्ञान निवृत्त होता है, तब-सर्व आत्मरूप भासता हैं ॥ हे वधिक । सर्वं जगत् अपना स्वरूप है, परंतु अज्ञानकरिके भेद होता है, जब आपको जानै तब द्वैत भेद भी मिटि जावै, जैसे कहूँ पुरुष अपनी भुजापर मिहकी मूर्ति लिखें अरु उसके भयकारे दौडते फिरें, अरु कष्ट पार्दै सो प्रमादकारिकै भयमान होते हैं, वह तो अपनाही अंग है, ऐसे जानै तब भय मिटि जाता .