पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७५

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(१६५६ ) योगवासिष्ठ । है, तैसे स्वरूपके ज्ञान कारकै जगत्भय मिटि जाता है, जैसे स्वप्नविषे अज्ञानकारिकै नानात्व भासता है, अरु बना कछु, नहीं, तैसे जाग्रविषे नानात्व भासता है; परंतु बना कछु नहीं, जब यह पुरुष अंतर्मुख होता है, तब इसको बोधकी दृढता हो आती हैं, जैसे प्रातःकालको ज्यों ज्यों सूर्य की किरणें प्रगट होती हैं, त्यों त्यों सूर्यमुखी कमल खिलते हैं, तैसे ज्यों ज्यों अंतर्मुख होता है, त्यों त्यों बोध खिलता है, विषयते वैराग्य करना अरु आत्माको अभ्यास करना इसकार बुद्धि अंतमुंख होती है, अरु आत्मपदकी प्राप्ति होती है, तब आत्मा सर्व एकरस भासता है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सुषुप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिकचतुविशत्तमः सर्गः ॥ २३४ ॥ द्विशताधिकपञ्चत्रिंशत्तमः सर्गः २३५. सुषुप्तिवर्णनम् । सुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! तब मैं उसकी सुषुप्तिस जागिकार जगतको देखत भया, जैसे कोऊ पुरुष समुद्रसों निकस आवै,अरु जैसे संकल्पसृष्टि फुरि आवै, जैसे आकाशते बादल और आते हैं, जैसे वृक्षवे फल निकसि आते हैं, तैसे उसकी सुषुप्तिसों सृष्टि निकस आई, मानौ आकाशते उड़ आई, मानौ कल्पवृक्षते चितामणि निकस आई हैं, जैसे शरीरके रोम खडे हो आते हैं, जैसे गंधर्वनगर फुरि, आता है, जैसे पृथ्वीते अंकुर निकसि आता है, तैसे सृष्टि फुरि आई है, जैसे कंधके ऊपर पुतलियां लिखी होवें, जैसे, स्तंभविषे अणउकार पुतलियां होवें, तैसे मैं सृष्टिको देखत भयो, जैसे स्तंभविषे पुतलियां निकसीं नहीं परंतु शिल्पी कल्पता है, कि एती पुतलियां निकसँगी, तैसे अनहोती सृष्टि आत्मरूपी स्तंभते निकसि आती है, अरु आत्मरूपी माटीते पदार्थरूपी वासना निकसते हैं, परंतु यह आश्चर्य है कि आकाशविषे चित्र होते हैं, अरु निराकार चैतन्य आकाशविषे पुतलियां मनुष्य कल्पता है । हे वधिक । जैसे आकाशविषे मकडीके समूह निकस आते हैं,