पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७६

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सुषुप्तिवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६५७ ) तैसे शून्य आकाशते सृष्टि निकसकार पुरुषके हृदयविषे मुझको स्पष्ट भासने लगी, अरु देश काल क्रिया द्रव्य करिकै अकस्मात्ते सत असत पदार्थ भासने लगते हैं, अरु असत् पदार्थ सत् हो भासते हैं, जैसे मणि मंत्र ओषधि व्यके बलकार असत् पदार्थ सव हो भासने लगते हैं, अरु सत्. पदार्थ असत भासते हैं, तैसे अभ्यासके बलकार मुझको पुरुषके, हृद्यविषे सृष्टि भासने लगी ॥ हे वधिक ! जैसा निश्चय संवितविर्षे दृढ होता है, तैसा रूप होकार भासताहै, वास्तवते न कोऊ पदार्थ है, न अंतर है, न बाहर है, न जाग्रत है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, यह सब सृष्टि इसके अंतरही स्थित है, अरु प्रमाददोषकारकै बाहरसे फल उत्पत्ति होते देखता है, जैसे स्वप्नविषे सब पदार्थ अपने अंतर बाहर होते भासते हैं, तैसे यह पदार्थ अपने अंतरसों बाह्य फ़रते भासते हैं ॥ हे वधिक । यह जगत् जो आकारसंयुक्त दृष्ट आता है, सो सब निराकार है, अपर कछु बना नहीं, ब्रह्मसत्ताही अज्ञानकारि जगतरूप हो भासती हैं, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको जगत् सत् असत् कछु नहीं भासता, केवल ब्रह्मसत्ता अपने आपविष स्थित भासती है, अरु जो अज्ञानी हैं; तिनको भिन्न भिन्न नामरूप भासता है, अरु जब चित्तकी वृत्ति बाहिर फुरती है। तिसको जाग्रत् कहता है, अरु जबअंतर्मुख फुरती है, तब तिसको स्वम कहता है, अरु जब वृत्ति स्थित होती है, तब तिसको सुषुप्ति कहता है, तौ एकही चित्तवृत्तिके तीन पर्याय हुए, अपर कछु वास्तव तौ नहीं, इसी जगत्के आदि शुद्ध केवल आत्मसत्ता थी तिसविषे चित्तसंवित् फुरी, तब जगतरूप भासने लगी, अपर किसी कारणते जगत् उपजा नहीं जिसका कारण कोऊ नहीं, तिसको असत् जानिये, वास्तवतेजगत् कछु बना नहीं, सर्व जगत् शतरूप ब्रह्मही है ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सुषुप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिकपंचत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३६ ॥