पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७८

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स्वमनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १६५९) तुम्हारे सुखते वारंवार सुनता हौं अरु विचरता हौं, अरु पदपदार्थका ज्ञान मुझको दृढ भया है, परंतु संसारभ्रम नष्ट नहीं होता, यह मैं जानता हौं, अरु सुनता हौं, कि संतके संग अरु सच्छास्त्रके विचारविना शांति नहीं प्राप्त होती, यह संशय मुझको होता है कि तुम जागृत जगतको स्वप्नवत् कैसे कहते हौ ? कई पदार्थ सत् भासते हैं, कई असत् भासते हैं ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक । यह जेता कछु जगत् पृथ्वी आदिक पदार्थ सत् भासते हैं, अरु शशेके शृंग आदिक असत् भासते हैं सो सब मिथ्यारूप हैं, जैसे स्वप्नविषे सत् असत् पदार्थ भासते हैं सो सर्व असत्रूप हैं, तैसे यह जगद असत्रूप है, तिसविषे अल्पप्रतीतिका अरु चिरकालकी प्रतीतिका भेद हैं, जागृत चिरकालकी प्रतीति है, तिसकारे पदार्थ सत् भासतेहैं, अरु स्वम अल्पकालकी प्रतीति है, तिसकर स्वप्नपदार्थ असत् भासते हैं, परंतु दोनों भ्रमरूप हैं, अरु असत् हैं, इस कारणते मैं तुल्य कहता हौं, असाही पदार्थ भ्रमकारकै सलूकी नई भासते हैं, अरु यह सर्व जगत् स्वप्नमात्र है, तिसविषे सत् क्या कहौं, अरु असत् क्या कहौं ? जैसे स्वप्नविषे कई पदार्थ सत् भासते हैं, कई असव भासते हैं, सो सबही असत्य हैं, तैसे जागृतविषे कई पदार्थ सत् भासते हैं, कई असत् भासते हैं, परंतु दोनों भ्रममात्र हैं, ताते असत्य हैं। हे वधिक । प्रतीतिका भेद है, पदार्थविषे भेद कछु नहीं, जिसविषे प्रतीति दृढ हो रही है, तिसको सत् कहता है, अरु जिसविषे प्रतीति दृढ नहीं, तिसको असत् कहता है, एक ऐसे पदार्थ हैं, जो स्वप्नविषे उनकी भावना दृढ हो गई है, सो जागृतविषे भी प्रत्यक्ष आनि भासता है, अरु मनोराज्यकी दृढ़ता जागृतरूप हो जाती है, सो भावनाकी दृढता हैं, अपर भेद कछु नहीं, जिसविषे भावना दृढ हो गई है, सो सत् भासने लगा है, जो ज्ञानवान् पुरुष हैं, तिनको जगत् संकल्पमात्रही भासता है, संकल्पते इतर कछु जगतका रूप नहीं, तिसविषे मैं सत् क्या कहौं, अरु असतं क्या कहौं, सब जगत् भ्रममात्र है, जो ज्ञानवान हैं, तिनको सत् असत् कछु नहीं, तिनको सब ज्ञानरूप भासता है, अरु जिसको स्वप्नविषे जागृतुकी स्मृति आई है, तिसको बहुरि स्वम नहीं भासता है, तैसे जिसको