पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७७९

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(१६६०) योगवासिष्ठ । जागृतरूप स्वप्नविषे बोधस्मृति भई है, सो बहुरि मोक्षको नहीं प्राप्त होता, ताते न कोऊ जागृत है, न कोऊ स्वप्न है, न कोऊ नेति है, काहेते कि, नेति भी कछु, अपर वस्तु नहीं निकसती; जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, तिनकी मर्यादा नेति भी भासती है, तो वह नेति किसीकार है, सब ज्ञानरूप होती है, तैसे जागृतविषे भी सब ज्ञानरूप हैं। सवितुके फुरणेकरि नानाप्रकारके पदार्थ भासते हैं, तिनविषे नेति भी भासती है, ताते न कोऊ जगत है, न नेति है, इसका कारण कोऊ नहीं, कारणविनाही जगत् अकस्मात् ऊर आता है, अरु मिटि भी जाता है, संवेदनके फुरणेकरि जगत् ऊरि आता है, संवेदनके मिटेते मिटि जाता है, ताते जागृत संवेदनरूप है, जैसे वायु स्पंदुरूप होता है, तैसे संवेदनही जगतरूप हो भासता है, वायु स्पंदरूप होती हैं, तब फुरणरूप हो भासती है, अरु निस्पंद कोऊनहीं जानता, परंतु वायुको दोनों तुल्य हैं, तैसे चित्त संवेदनके ऊरणेविषे जगत् भासता है, अरु ठहरनेविषे जगत् किंचन मिटि जाता है, ऊरना अरु ठहरना दोङ उसके किचन हैं, आप दोनोंविषे तुल्य है । हे वधिक । नेति भी अज्ञानीके समुझावनेनिमित्त कही है, स्वप्न भी असर हैं, सब को जानता है, अरु स्वप्नका वृत्तांत जाग्रतविषे सिद्ध होता हष्ट आता है, को कहताहै, कि रात्रिविषे सुझको स्वप्न आया है, अमुक कार्य इसी प्रकार होवैगा, सो जाग्रतविषे होता दृष्ट आता है, अरु पुत्रको पिता कहि जाता है, मेरी गति करहु अरु अमुक स्थानविर्षे व्य पडा है, तुम काढि लेवहु, सो उसीप्रकार होता दृष्ट आता है, जो नेति होती तौ कार्य कोऊ सिद्ध न होता, सो तौ होता है, ताते नेति भी कछु वस्तु नहीं, आत्माते इतर कछवस्तु नहीं, जाग्रत् नाम तिसका है जिसको आत्मशब्द कहता है, अरु जिसको तुम जाग्रत् कहते हौ सो कछ वस्तु नहीं, जाग्रत् नाम जो मनसहित षटू इंद्रियाका संवेदन होती है सो स्वप्नविधे मनसहित घट् इंद्रियोंकी संवेदन होती है, तिनकेविषे ग्रहण होता है, ताते जाग्रत् वस्तु कछु नहीं, जो जाग्रविणे अर्थ सिद्ध होता है, अरु स्वप्नविषे भी होवैतौ जाग्रतुविषे कछु वस्तु न हुई, अरु जो तू कहे, स्वप्न कछुः वस्तु है तौ स्वप्न भी नहीं, स्वम त