पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८०

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नहीं, जैसे एक वैसे यह शरीर भी है तो क्या स्वभनिर्णयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६६१) होता है, जहां निद्रा अम होता हैं, केवल शुद्धचिन्मात्रसत्ता है, जगत् तिसका किंचन है, जैसे रत्नकी लाटको चमत्कार होता है, सो लाट इतर कछु वस्तु नहीं, रत्नही व्यापा है, तैसे जाग्रत् स्वप्न जगत् आत्माका चमत्कार है, सो बोधसत्ता केवल अपने आपविषे स्थित है, सो अनंत है, तिसविषे जगत् कछु बना नहीं, जो आत्माते इतर जगत् भासता है, सो नाशरूप है, आत्मा सदा अविनाशी है । हे वधिक ! जब यह पुरुष शरीरको छांडता है, तब परलोकविषे सुख दुःख कैसे भोगता है, जैसे जलविषे एक तरंग उठिकरि मिटि जाता है, अपर ठौर अपर प्रकार लेकर उठना है, सो जलही जल है, आगे भी जल था, पाछे भी जल है, तरंगभी जल है, जलहीका विलास इसप्रकार फुरताहै, तैसे यह शरीर भी अनुभवरूप है, अनुभवते इतर कछु नहीं, जैसे एक स्वप्नको छाँडिकरि दूसरा स्वप्न देखता है तो क्या है, अपनाही आप है, तैसे यह जगत् आत्मरूप है ॥ हे वधिक ! जाग्रत् स्वप्न सुषुप्ति तुरीया यही चाडौँ क्षु हैं, जाग्रत् जो सृष्टिको समष्टिता है, तिसका नाम विराट् हैं, अरु स्वप्न जो लिंगशरीरकी समष्टिता है, तिसका नाम हिरण्यगर्भ है, अरु सुषुप्ति शरीरकी समष्टिता अव्याकृत माया है, अरु तुरीया सर्व शरीरकी सप्तधिता है, सो चेतनरूप आत्मा है, तुरीया कहिये साक्षीभूत जानना, तिसकी समष्टितारूप चेतनवयु है, चारों शरीर उसके हैं, अरु सदा निराकार है, अचेत चिन्मात्र है। हे वधिक ! यह चारों परमात्माके शरीर हैं, सो परमात्मा निराकार है, अरु आकार जो दृष्ट आते हैं, सो भी वहीरूप हैं, सो आकार कल्पनामात्र हैं, अरु आत्मा सर्व कल्पनाते रहित है, ताते सब जगत चिदाकाशरूप है, जैसे पत्थरकी शिलाविषे कमल फूल नहीं लगते, तिनका होना असंभव है, तैसे आत्माविषे जगत्का होना असंभव है। हे वधिक। आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, तू जागिकार देख, जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो संकल्पमात्र हैं, जिस विषे कल्पित हैं सो नामरूपते रहित है; तिसको देखेगा तब आत्मरूप सब जगत् भासैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे स्वप्ननिर्णयो नाम द्विशताधिकषत्रिंशत्तमः सर्गः ॥ २३६॥