पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

स्वमविचारवर्णन-निंर्वांणप्रकरण, उत्तराद्ध ६. ( १६६३ ) हे व्याध ! यह जगत् स्वप्नमात्र है, अरु यह शरीर भी स्वप्नमात्र है, तू मेरा स्वप्ननगर है, अरु मैं तेरा स्वप्ननगर हौं, सब जगत् स्वप्ननगर है, करण कार्य कोऊ नहीं, सब आभासमात्र है, आभासविषे कछु अपर वस्तु नहीं होती, ताते सब जगत् आत्मस्वरूप हैं, जैसे जैवरीविषे सर्प भ्रममात्र होता है, तो सर्प कछु नहीं जेवरी होती है, तैसे सब जगत् चिन्मात्ररूप है, तिसविषे कछु बना नहीं, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित हैं, तिसविषे अहं होकर इसप्रकार चेतनता संवेदन फुरती है, तब जगतआकारका स्मरण होता है, जैसे जैसे संकल्प फुरता हैं, तैसा तैसा जगत् भासता है, जैसे स्वप्नसृष्टि नानाप्रकार हो भासतीहै, परंतु अनुभवते इतर कछु नहीं, जैसे संकल्पनगर भासता है, सो अनुभवते इतर कछु नहीं तैसे यह जगत् भासता है, जिस संवितविषे अपना स्वरूप स्मरण होता है, तिसको जगत् कारण कार्यरूप भासता है,सोई जीव हैं, जिस संवितको कर्मकी कल्पना स्पर्श करती हैं, तिसको तिन कर्मका फल नहीं लगता, कर्तव्य दृष्ट भी आता है, परंतु उसके हृदयविषे कर्तव्यका अभिमान नहीं स्पर्श करता, अरु जिसके हृदयविषे कर्तव्यका अभिमान होता है तिसको फल भी होता है ॥ हे साधो । यह जो सृष्टि है, तिसका एक विराट् पुरुष है, तिसका शरीर है, अरु यह विराट् भी अपर विराइके संकल्पविषे है,यह विराजसविराट्का रोमांच है, जब विराट् पुरुषके अंगविषे क्षोभ होता है, अरु जीवकी पापवासना इकट्ठी आनि उदय होती है, जब वासना अरु अंगका क्षोभ इकट्ठा होता है, तब तिस स्थानविषे उपद्रव कष्ट होता है, जैसे वनविषे बहुत वृक्ष होते हैं,तिनपर वज्र आनि पङ, तिसकरि सब चूर्ण होजावें, तैसे इकडे पापकार तैसे इकठेही मारे जाते हैं, अरु इकडे दुर्भिक्षकार कष्ट पार्दै जैसे किसी पुरुषके अंगपर माखी लौं, तिसकार वह अंग कैंपता है, उस अंग कॅपनेकरि रोम कँपने लग जाते हैं, अरु जो सपदिक जीव कहूँ। देशता है तो सारा शरीर कष्टपाता है,अरु सब रोम कष्ट पाते हैं, तैसे यह जगत विराटू पुरुषका शरीर है, जब किसी नगरविषे पाप उदय होता है, तब एक रोमरूपी नगर जीव कष्ट पाते हैं, अरु जोसारे अंगरूपी देशविषे