पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८३

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(१६६४) गवासिषु । पाप आनि उदय होता है, तब सर्पके काटनेवेत् सारा शरीर विराट्का ‘क्षोभवानहोता है, तिसके शरीर ऊपररोमरूपी जीव सब कष्टपातेहैं, केवल आत्मसत्ता अनुभवरूप है,तिसके प्रमादकर यह आपदा दृष्ट आतीहै,कि यह जगत्कारणते उपजा होता तौ सत् होता, सो तौ कारणते उपजा नहीं, सत् कैसे होवे, इस जगतविषे सत्प्रतीति करनी यही अज्ञान है ॥ है। साधो ! इस आकाशका कारण कोऊ नहीं, पृथ्वीका कारण कोऊ नहीं, अविद्याका कारण भी कोऊ नहीं,स्वयंभू भी अकारण है,स्वयंभू तिसका नाम है, जो अपने आपकार प्रगट है, तिसका कारण कौन होवै, जल अग्नि वायुका कारण भी कहूं नहीं, जो तू कहै, सबका कारण आत्मा है, तौ आत्मा निमित्तकारण कगा, अथवा समवायि कारण कहेगा, सो प्रथम पक्ष. निमित्तकारण कहिये तो नहीं बनता, काहेते कि आत्मा अद्वैत है, जो दूसरी वस्तु नहीं तौ निमित्तकारण किसका होवे,अरु समवायिकारण कहिये तो भी नहीं बनता, काहेते कि समवाथिकारण आप परिणामीकारि कार्य होता है, सो आत्मा अच्युतः है, अपने स्वरूपको त्यागता नहीं, सो समवायिकारण कैसे होवे, ताते आत्माविषे कारणकार्यभाव नहीं, बहुरि जगत् किसका कार्य होवे, हे अंग ! जो कारणेते दृष्ट आवै तिसको जानिये कि भ्रममात्र भासता है, अरु जो तू कहै कारएंबिना पिंडाकार नहीं होते, कहूँ कारण भी होवैगा, तौ हे अंग । जो यह पुरुष देहको त्यागता है, अरु परलोक जाय देखता है, कर्मके अनुसार सुख दुःख भोगता है, उस शरीरका कारण कौन कहेगा, वह तौ कारणते नहीं उपजा, भ्रममात्र है, तैसे यह भी भ्रममात्र जान,जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारके आकार भासि आते हैं, सौ किसी कारणते नहीं उपजे, जैसे आकाशविषे तरुवरे अरु रंग भासते हैं सो भ्रममात्र हैं, तैसे यह जगत् भ्रममात्र है। जैसे बालकको अणहोता वैताल भासता है, तिसकार भयमान होता है, तैसे यह जगत अणहोता स्वरूपके प्रमादकार भासता हैं, वास्तवते परमात्मसत्ता ज्योंकी त्यों है, सोई संवेदन करिकै जगतरूप हो भासती है, ताते जगत् वहीरूप है, जैसे वायु चलने ठहरनेविषे एकहीरूप है, परंतु चलनेकर भासता है, ठहरनेकर नहीं भासता, तैसे