पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८४

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रात्रिसंवादवर्णन-निर्वाणपकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६६५) चित्तसंवित् फुरणेकरिकै जगत आकार हो भासती है, तिसविषे नानाप्रकारके शब्द अर्थ दृष्ट आते हैं, अरु जब फुरणेते रहित होती है, तव अपने स्वभावको देखती है, जब संकल्पकी दृढता हो गई, तव कारणकार्य भासने लगे, जिसको कारणकार्य भासता है; तिसको जगत् सुत् भासता है, अरु जिसको कारणकार्यते रहित भासता है, तिसको जगत् आत्मरूप है, जिसको कारणकार्यबुद्धि है, तिसको वही सत् है, पुण्य करैगा, तव स्वर्गसुख भोगैगा, पाप करेगा, तव नरकदुःख भोगैगा, ताते उसको पुण्य करना भला है, जब जीवके पाप इकडे आनि होते हैं, तव दुर्भिक्ष पड़ती है. अरु मृत्यु आती है, जैसे पत्थरकी वर्षा होवै, तैसे कष्ट पाते हैं, अरु जो मेरा निश्चय पूछै तौ न पाप है, न पुण्य है, न दुःख है, न सुख है, न जगत् है, जब स्वरूपके प्रमाद करिकै अर्हता उदय होती है, तब नानाप्रकारके विकार भासते हैं, जब प्रभाद निवृत्त होता है, तव सव आत्मारूप भासता है, ताते तू सर्व कल्पनाको त्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित हो, तव सर्व संशय मिटि जागे ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे। निर्वाणप्रकरणे स्वप्नविचारो नाम द्विशताधिकसप्तत्रिंशत्तमः सर्गः ॥२३॥ द्विशताधिकाष्टत्रिंशत्तमः सर्गः २३८. रात्रिसंवादवर्णनम् । मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! इसप्रकार उग्रतपा ऋषीश्वर उपदेश करत भया, तिसकरि मैं अपने स्वभावविषे स्थित हुआ, अरु अकृत्रिम पदको प्राप्त हुआ, उग्रतपाके साथ मानौ विष्णु भगवान् उपदेश करने आनि वैठा है, तिसके उपदेशकर मैं जागा, जैसे कोऊ रजकर वेष्टित स्नान करिकै उज्वल होवे, तैसे मैं हुवा,अपनी पूर्व स्मृति अरु अवस्थाको स्मरण करत भया, समाधिवाले शरीरको भी जाना, अरु आत्मवयुको भी जाना, सो उग्रतपा यह तेरेपास बैठे हैं ॥ अग्निरुवाच ॥ हे राजन् ! जब इसप्रकार मुनीश्वरने कहा, तव वधिक विसमयको प्राप्त भया, अरु कहा, हे सुनीश्वर ! बड़ा आश्चर्य है; जो तुम कहते हो कि, स्वप्नविषे १०५