पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८७

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(१६६८) योगवासिष्ठ । है, तिसका विराट् आत्मा हैं, सो सदा अपने आपविषे स्थित है, तिसविषे अपर कछु बना नहीं, जिस पुरुषको उसका प्रमाद है, तिसको उपद्व होते भासते हैं, अरु कारणकायेंरूप पदार्थ भासते हैं, तिसकार कर्मके अनुसार दुःखसुखको भोगता है, जिसको स्वरूपका साक्षात्कार है, तिसको जगत् आत्मकरिकै भाता है। सर्वे औरते ब्रह्म भासता है । हे मुनीश्वर ! जब इसप्रकार वनके पशु पक्षी सब जले, तब तुम्हारी कुटीको आग लगी, कुटी अरु तुम्हारे शरीर अग्निकार जल गये, जिसके शरीरविषे तुम प्रवेश किया था, सो भी जल गया, अरु तुम्हारे शिष्य भी जल गये, उसका ओज भी जल गया, तुम दोनोंकी संवितु आकाशरूप हो गई, वह अग्नि भी वनको जलायकारि अंतर्धान हो गई, जैसे अगस्त्यमुनि समुद्रुका आचमन करिके अंतर्धान हो गया था, तैसे अग्नि वनको जलायकार अंतर्धान हो गये, तुम्हारे शरीरकी राख भी नहीं, रही जैसे स्वप्नसृष्टि जागृतविषे दिखाई नहीं देती, तैसे तुम्हारे शरीर अदृष्ट हो गये ।। हे मुनीश्वर ! जेता कछु जगत् दीखता है, सो सब स्वप्नमात्र है, मैं तेरे स्वप्रविषे हौं, अरु जगत्का अधिष्ठान ब्रह्मसत्ता है, सो सबका अपना आप है, जगत् तिसका आभास है, जैसे संकल्पसृष्टि होती है, जैसे स्वप्ननगर होता है, जैसे गंधर्वनगर होता है, तैसे यह जगत् है ॥ है मुनीश्वर ! यह जगत् तेरे स्वप्नविषे स्थित है, अरु तुझको चिर-. कालकी प्रतीति कारकै जागृतविषे कारण कार्य नानाप्रकारका सत् होकार भासता है । मुनीश्वर उवाच ॥ हे भगवन् ! जो यह स्वप्ननगर सत् हो गया है, तो सबही स्वप्ननगर सत् होवैगे १ ॥ उग्रतपा उवाच ॥ हैं मुनीश्वर प्रथम तू सत्को जान, कि सत् क्या वस्तु है, जेता कछु जगत् तुझको भासता है, सो सबही स्वप्ननगर हैं, इनविषे कोङ पदार्थ सत् नहीं, इस जगत्को तू समाधिवाले शरीरकी अपेक्षाकरि असत् कहता है, अरु जिसको तू जाग्रत्वपु कहता हैं, सो किसकी अपेक्षाकरि कहेगा, यह तौ अदृष्टरूप है क्यों ताते इसको स्वम जान, अरु जिस सत्ताविषे यह समाधिवाला शरीर भी स्वप्न है तिसकी सत्ताको तू जान, तब तुझको सत्पदकी प्राप्ति होंवै, जैसे यह जगत् आत्मसत्ता