पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७८९

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(१६७०) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकैकोनचत्वारिंशत्तमः सर्गः २३९. रात्रिप्रवोधवर्णनन् । .. मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक । इसप्रकार उग्रतपा ऋषीश्वर मुझको कहत भया । कि है मुनीश्वर ! इसप्रकार वह वन होवैगा, तव तू • अरु मैं एक समय तप करते वैठे होवैगे, तहां एक व्याध मृगके पाछे, दौडता तेरी कुटीके निकट अवैगा, तिसको तू सुंदर पवित्र कथा उपदेश करेगा, तिसविषे स्वप्नका प्रसंग चलैगा, तिस प्रसंगको पायकार स्वप्न अरु जागृका वृत्तांत वह पूछेगा, तिसको तू स्वप्रका प्रसंग कहैगा, तिस स्वग्नप्रसंगविषे उसको परमार्थं उपदेश करेगा, काहेते कि, संतका स्वभाव यह है, अरु मेरे समागमको वृत्तांत उपदेश करेगा, तेरे वचनको पायकार वह पुरुष विरक्तचित्त होकार तप करैगा, तिसकार अंतःकरण उसका निर्मल हौवैगा, अरु सप्तपदको प्राप्त होवैगा ॥ है। मुनीश्वर 1 इसप्रकार वृत्तांत होना है, सो मैं तुझको संक्षेपते कहा है। तू भी ध्यानकर देख, तो इसप्रकार होना है, इस कारणते मैं तुझको व्याधका गुरु कहा है ॥ हे व्याध ! इसप्रकार जब उग्रतपाने मुझको कहा तब मैं सुनिकरि विस्मित भया, कि इसने क्या कहा, वडा आश्चर्य है, ईश्वरकी नेति जानी नहीं जाती, कि क्या होना हैं ॥ हे वधिक । इसप्रकार मेरी अरु उसकी चर्चा हुई तव रात्रि व्यतीत हो गई, तब मैं स्नान कारकै भली प्रकार उसकी प्रीति बढावनेके निमित्त, टहल करी, अरु वहाँ रहने लगा, बहुरि में विचारत भया, कि यह जगत् क्या है, अरु इसका कारण कौन है, मैं क्या हौं, तब विचार किया, कि यह जगत् अकारण है, किसीका बनाया नहीं, स्वप्नमात्र है, आत्मारूपी चंद्रमाकी जगतरूपी चाँदनी है, तिसका चमत्कार है, वही आत्मसत्ताही घट पट आदिक आकार हो भासती है, तोते न कोऊ कर्म है, न क्रिया है, न कर्ता है, न मैं हौं, न जगत है, अरु जो तू कहै है क्यों नहीं, सर्व अर्थ सिद्ध होते हैं, ग्रहण त्याग सिद्ध होते हैं, तो सुन, ग्रहण त्याग