पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९०

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यथार्थोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६, (१६७१) जो होता है, सो पिंडकार होता है, अरु पिंड, तत्त्वका होता है, सो तो वह पिंड न किसी तत्त्वकरि वना है, न अपर किसी मातापिताकार, यह तौ स्वप्नविषे फुरि आया, इसका कारण कौन कहिय अरु जो कहिये भ्रममात्र है, तौ भ्रमका कारण कौन है, भ्रांतिका द्रुष्टा कौन है, जिस शरीरकार दृष्ट आता था, इसका दूधारूप मैं सो तौ भस्म हो गया, ताते जगत् अपर कछु वस्तु नहीं केवल आदि अंतते रहित आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित है, सो, यह मेरा स्वरूप है, वहां यह जगतरूप होकार भासता है, अपर जगत् कछु वस्तु नहीं, केवल ब्रह्मसत्ता स्थित है, पृथ्वी जल तेज वायु आकाश आदिक पदार्थ सव आत्मरूप हैं, जैसे समुद्र तरंगरूप हो भासता है, परंतु कछु अपर नहीं, तैसे नानाप्रकार हो भासती है. आत्मा कछु अपर नहीं, अरु ब्रह्मसत्ताही निराभास है, आभास भी कछु हुआ नहीं, केवल चेतनसत्ता ऐसे रूप होकर भासती है ॥ हे वधिक ! इसप्रकार में विचार करके विगतज्वर हुआ मुनीश्वरके वचनोंकार पर्वतकी नई अचल अपने स्वभावविषे स्थित हुआ, जो कछु इष्ट अनिष्ट पदार्थ प्राप्त होवे, तिसविषे सम रहौं, अभिलाष राहत सव अपनी चेष्टाको करौं, परंतु अपने स्वभावविषे स्थित रहौं ॥ हे वधिक ! सुख भोगनेके निमित्त न मुझको जीनेकी इच्छा है, न मरनेकी इच्छा है नजीनेविषे हर्ष है, न मरनेविषे शोक है, सदा आत्मपदविषे स्थित हौं, कछु संशय मुझको नहीं संपूर्ण संशय फुरणेविषे हैं, सो फुरणा मेरेविषे नहीं, तोते संसार भी नहीं इति श्रीयोगवासिष्ठे निवाणप्रकरणे रात्रिवोधो नाम द्विशताधिकैकोनचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥२३९ ॥ द्विशवाधिकचत्वारिंशत्तमः सर्गः १४०. यथार्थोपदेशवर्णनम् । मुनीश्वर उवाच ॥ हे, व्याध । इसप्रकार मैं निर्णय किया, तव तीन ताप मेरे नष्ट भये, अरु वीतराग निःशक हुआ, किसी पदार्थकी