पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९२

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भविष्यत्कथावर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६७३) विषे दृढ अभ्यास करना, इस मार्गविना शांति प्राप्त नहीं होती, जव दृढ अभ्यास होवै तब शांति प्राप्त होवै, अरु चित्तनिर्वाण हो जावे द्वैत अद्वैत कल्पना मिटि जावें,इसीका नाम निर्वाण कहते हैं,अरुजवलग चित्तनिर्वाण नहीं भया, तवलग राग द्वेष नहीं मिटता, अरु जव अभ्यासके वलकर चित्त निर्वाण हो जाता है, तव अविद्या नष्ट हो जाती है, अरु आत्मपद प्राप्त होता है, शांत शिवपदको पाता है, जो मान अरु मोहते रहित है, अरु संगको दोष जिसने जीता है, किसीके संगकार वैधमान नहीं होता, अरु अध्यात्मविचार नित करता है, सर्व कामना जिसकी निवृत्त हुई हैं, अरु इष्टके रागदोषद्वंद्वते मुक्त है, सुख दुःखविषे सम रहता है, ऐसा जो ज्ञानवान् पुरुष है, सो अविनाशी आत्मपदको पाता है ॥ इति श्रीयोग निर्वाणप्र०यथार्थोपदेशो नाम द्विशताधिकचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥२४० ॥ द्विशताधिकैकचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४१. भविष्यतूकवर्णनम् ।। अग्निरुवाच ॥ हे राजन् विपश्चित् ! जब इसप्रकार मुनीश्वरने कहा, तव वधिक वडे आश्चर्यको प्राप्त हुआ, मुनीश्वरके वचन सुनकर मूर्तिवत् हो गया, जैसे कागजकेऊपर मूर्ति लिखी होती है, तैसे आश्चर्यकार स्थित भया, अरु संशयके समुद्रविष डूवि गया, जैसे चक्रके ऊपर चढ़ा वासन भ्रमता है, तैसे वह संशयविषे भ्रमण लगा, मुनीश्वरका उपदेश सुना, परंतु अभ्यासविना आत्मपदविषे विश्रांति न पाई ॥ हे राजन् ! परम वचनोंका तिसने अंगीकार न किया, जैसे राखविषे आहुति पाई निरर्थक होती है, तैसे मूर्खको उपदेश करना निरर्थक होता है। सूर्खता करिकै वह संशयविषे रहा, अरु विचारत भया, कि यह संसार अविद्यक है, जो मैं इसका अंत लेॐ जो मुझको आत्मपद भासै, ताते तय करौं । हे राजन् विपश्चित् ! इसप्रकार विचारकरि उठा, उठिकरि उनके पास फिरने लगा, अरु पवित्र चेष्टा करने लगा, व्याधका धर्म तिसने त्याग किया, जिस प्रकार वह चेष्टा करै तैसे वह भी अधिक चेष्टा के