पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९५

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(१६७६) योगवासिष्ठ । कष्ट हा कष्ट ॥ है देव ! यह क्या शरीर तुझने मुझको दिया है, जगतके अंत कहूं लेनेको मैं शरीर बढ़ाया था, सो तौ अंत कहूं न आया, काहेते कि, अविद्या नष्ट न भई, अविद्या तव नष्ट होती है, जब ज्ञान होता है, आत्मज्ञान तब होता है, जब सच्छास्त्रका विचार अरु संतका संग होता हैं, जो संतसंग अरु सच्छास्त्र मुझको प्राप्त होंवै, तत्र ज्ञान उपजैगा, यह तो मुझको ऐसा शरीर प्राप्त भया है, जो वड़ा भार उठाये फिरता हौं, अनेक सुमेरु पर्वत होवें, तो भी इसके पास तृणवत् हैं, ऐसा उत्कृष्ट मेरो शरीर है, इस शरीरसाथ मैं किसकी संगति करौं, अरु किस प्रकार शास्त्रका श्रवण करौं, यह शरीर मुझको दुःखदायी है, ताते इस शरीरको त्याग करौं । हे वधिक । ऐसे विचारकरि तू प्राणायाम करैगा, तिसकी धारणा करिकै शरीरको त्यागि देवैगा, जैसे पक्षी फलको खायकारि गिटेको त्याग देता है, जैसे इंद्रके वज्रकार खंडित हुयेते पर्वत गिरते हैं, तैसे एक सृष्टिभ्रमविषे तेरा शरीर गिरेगा, तिसके नीचे कई पर्वत नदियाँ जीव चूर्ण होवेंगे, तहां बड़ा खेद होवैगा, तब देवता चंडिकाका आराधन करेंगे, सो चंडिका भगवती तेरे शरीरका भोजन कर जावैगी, तब सृष्टिविषे बहुरि कल्याण होवैगा, इस वनविषे जो तमाल वृक्ष हैं, तिसके नीचे तू तप करेगा, यह तेरी मैं भविष्य कही है, अब जैसी तेरी इच्छा हो तैसे करो ॥ व्याध उवाच ॥ हे भगवन् ! बड़ा कष्ट है कि, मैं एते खेदको प्राप्त होऊंगा, ताते सोई उपाय करहु, जिसकरि यह भावना निवृत्त हो जावै ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! जो कछुवस्तु होनी है, सो अन्यथा कदाचित् कछु भी नहीं होती, जो कछु शरीरकी प्रारब्ध है सो अवश्य होती है, जैसे चिल्लाते छुटवा बाण तबलग चला जाता है, जबलग उसविषे वेग होता है, वेग जब पूर्ण होता है, तब पृथ्वीपर गिर पड़ता है, अन्यथा नहीं होता, तैसेही जैसा प्रारब्धका वेग उछलता है, तैसेही होवैगा, जो भावी फिरनेकी शक्ति हवै जीव उपासि, तो वाया चरण दाहने करही, दाहना बांये करही, तो ऐसे नहीं होता, तौ हुआ है सो होना है, सो यह है, ज्योतिष शास्ववाले जो भविष्यत् दशा आगे कहते हैं, अरु तैसेही होता है, तब उसी प्रकार होता है, क्योंक जो