पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९७

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(१६७८) योगवासिष्ठ । विचार करेगा कि वडा सिद्ध हौं, बहुत शत वर्ष में निर्विघ्र भोग भोगे हैं। परंतु एक विद्रथ नामक शत्रु है, तिसका नाश करौं । हे वधिक ! तिसके मारणेनिमित्त तू सेनाको ले चढेगा, सो चार प्रकारकी सेना नाश प्राप्त होवैगी हस्ती घोडे रथ प्यादा चार प्रकारकी सेना है, दोनों ओरकी सेना नष्ट होवेंगी, अरु तुम रथते उतरिकरि परस्पर युद्ध करोगे, तुझको भी वहुत शस्त्र लगेंगे, शरीर काटा जावैगा, तौ भी तू उसके सन्मुख जाय युद्ध करेगा, उसको मारैगा, देंगा काटि देवैगा, कुहाडेसाथ तिसको मारिकें बहुरि अपने गृहविषे तू आवैगा, सव दिक्पाल तुझसों भय पार्वैगे तू वडा तेजवान् होवैगा, कि बडा आश्चर्य है। विदूरथेको जीतिकार तुझने यमपुरी पठाया है, बड़ा आश्चर्य है, वडा आश्चर्य है, तव सिद्ध राजा कहावेगा ।। हे मंत्री हैं इसविषे क्या आश्चर्य है, मेरे भयकरि तौ दिक्पाल भी कंपते हैं, अरु प्रलयकालके समुद्र मेघवह मेरी सेना है, किसी ओरते आदि अंत नहीं आती, विदूरथके जीतनेविषे सुझको क्या आश्चर्य है, तब मंत्री कहैगा । है राजा ! एती सेना तेरेसाथ है तो क्या हुआ उसे विदूरथकी स्वीको तुम नहीं जानते, सो कैसी देवी है, जिसके क्रोध फुरणेकरि संपूर्ण विश्व नाश हो जाती है, तिसको तिसकी स्त्री लीलाने तप करनेते वश किया है, जो वह माता सरस्वती ज्ञान शक्ति है, अरु सर्व भूतके हृदयविषे स्थित है, जैसा तिसविषे कई अभ्यास करता है। सोई सरस्वती सिद्ध करती है । हे राजन् ! वह राजा अरु तिसकी स्त्री लीला सरस्वतीसों मोक्ष माँगते थे, कि किसी प्रकार हम संसारवंधते मुक्त होवें, इस कारणते वह मोक्षभाव हुये, अरु तेरी जय हुई ॥ राजोवाच ॥ हे अंग ! जो सरस्वती मेरे हृदयविषे स्थित है, तो मुझको मुक्त क्यों नहीं करती, मैं भी सदा सरस्वतीकी उपासना करता हौं । मंत्र्युवाच ॥ हे राजन् । सरस्वती जो चित्तसंवित है, तिसविषे जैसा निश्चय होता है, तिसकी सिद्धता होती है । जो हे राजन् ! तू अपनी जयही सदा माँगता था, इस कारणते तेरी जय हुई, अरु वह मुक्ति माँगता था, उसको मुक्ति हुई, उसका संस्कार पिछला उज्वल था, तिसकारमुक्त भया, अरु तेरा संस्कार पिछले जन्मका तामसी था, तिस कारणते तुझको