पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९८

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सिद्धनिर्वाणवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६७९) इच्छा नभई, अरु शांति भी प्राप्त न भई, अरु आदि परमात्मसत्तासों जो सव पदार्थ प्रगट हुये हैं सो सुन, केवल जो आत्मसत्ता निष्किचन पद है। सो सदा अपने स्वभावविषे स्थित है, तिसविषे चेतनता संवेदन फुरती है, अहँ अस्मि जो मैं हौं, इस भावनाका नाम चित्त है, तिस चेतनताने देह, इंद्रियां, प्राण, मन, बुद्धि आदिक दृश्य जगत् कल्पा है, तिस कल्पनाकर विश्व चित्तविषे स्थित है, अरु चित्त आत्मासों फुरा है, प्रमादकारकै देहादिक कोऊ कल्पा है ॥ राजोवाच ॥ हे साधो ! आत्मा तौ निष्कचन केवल पद निर्विकार है। तिसविषे तामसी देह कहते उपजी ।। मंत्र्युवाच ॥ हे राजन् ! जैसे स्वप्नविषे प्रमाकरिके तामसी वषु दृष्ट आता है, परंतु है नहीं, तैसे यह आकार भी इष्ट आते हैं, परंतु हैं नहीं, अज्ञानकरिकै भासते हैं, ताते तुझको प्रमाद हुआ है, तब वासनाके अनुसार जन्म पाता फिरा है, इस प्रकार तेरे बहुत जन्म वीते हैं, परंतु पिछला शरीर जो तुझने भोगा है, सो महातामसी था, अर्थ यह जो तामस तामसी था, इस कारणते तुझको मोक्षकी इच्छा न भई ।। है राजन् ! तेरे वहुत जन्म वीते हैं, तिनको मैं जानता हौं, तू नहीं जानता ॥ राजोवाच ॥ हे निर्मल आत्मा । तामस तामसी किसको कहते हैं ।। मैन्युवाच ॥ हे राजन् ! एक सात्विक सात्विकी है, एक केवल सात्विकी है, एक राजस राजसी है, एक केवल राजसी है, एक तामस तामसी है, एक केवल तामसी है, सो भिन्न भिन्न सुन ॥ हे राजन् ! जो निर्विकल्प अचेतन चिन्मात्रसत्तासों संवित् फुरी है, तिसकी अहंप्रतीति अधिष्ठानविषे रही है, अपर निश्चयको नहीं प्राप्त भई, अनात्मभावको स्पर्श नहीं किया, ऐसे जो ब्रह्मादिक हैं, सो सात्विक सात्विकी हैं, अरु जिनको विभूति सात्विकी पदार्थ भासने लगे हैं, अरु स्वरूपका प्रमाद है, बुद्धिसाथ स्पर्श किया भी अरु न किया भी सो केवल सात्विक है, अरु जिसकी संवितको बुद्धिसाथ संबंध हुआ, अरु नानाप्रकारके राजसी पदार्थविषे सत्यप्रतीति हुई है, अरु राजस कर्मविषे दृढ अभ्यास है, तिसके अनुसार शरीरको धारते चले गये स्वरूपकी ओर नहीं आये, चिरपर्यंत ऐसे रहे, सो राजस राजसी फुरणा है, अरु