पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/७९९

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(१६८०) योगवासिष्ठ । जिनको बोधविषे अहंप्रतीति भई, स्वरूपका प्रमाद है, अरु जगत् सत्य भासता है, राजसी पदार्थविषे अधिक प्रतीति है, राजसी कर्मका अभ्यास है, तिसके अनुसार जन्म पाते हैं, बङ्गुर शीघ्रही स्वरूपकी और आवै, तिनका नाम केवल राजसी है, सो राजस राजसीते श्रेष्ठ है, अरु जिनको स्वरूपका प्रमाद है, अरु जगतविषे सत् प्रतीति हुई है, तिस जगतविषे जो तामस कर्म हैं, तिन कमविषे दृढ अभ्यास हुआ है, तिसकरि महामूढ जन्मको पाते चिरपर्यंत चले जाते हैं, दैवसयोगते कभी मोक्षकी संगति आनि प्राप्त होती है, तो भी त्यागि जाते हैं, सो तामस तामसी हैं, अरु जिनको स्वरूपका प्रमाद हुआ है, अरु तामसी कर्मकी रुचि है, अरु तिनकर्मके अनुसार जन्म पाते जाते हैं, पाते पाते जो इटि पड़ा; तामसी कर्मको त्यागिकार मोक्ष• परायण हो गया सो केवल तामसी है, तामस तामसीते श्रेष्ठ है ॥ है। राजन् ! तू तामस तामसी था, इस कारणते सरस्वतीसों तू अपनी जयही माँगता रहा, मोक्षका अभ्यास तुझने न किया ॥ राजोवाच ॥ है। निर्मलचित्त मंत्री ! मैं तामस तामसी था इस कारणते मोक्षकी इच्छा न करी, परंतु अब मुझको सोई उपाय कछु कहै जिसकर मैरा अहंभाव निवृत्त होवे, अरु आत्मपदकी प्राप्ति होवै ॥ मंत्र्युवाच ॥ हे राजन्! निश्चयकार जान जो कोङ जैसे पदार्थकी इच्छा करता है; तिसको वह पदार्थ प्राप्त होता है, अरु जिसकी भावनाकार अभ्यास करता है, वह पदार्थ निःसंदेह प्राप्त होता है, अरु जिसका दृढ अभ्यास करता है, वहीरूप हो जाता है। ऐसा पदार्थ त्रिलोकीविषे कोऊ नहीं, जो अभ्यास वशते न पाइये, जो प्रथम दिनविषे कोऊ विकर्म काहूते हुआ है, अरु अगले दिन शुभ कर्म करै, तब वह विकर्म लोप हो जाता है, शुभ कर्मही मुख्य हो जाता है, इससे जब तू आत्मपदका अभ्यास करेगा। तब तुझको आत्मपद प्राप्त होवैगा, तेरा जो तामस तामसी भाव हैं, सो निवृत्त हो जावैगा ।। हे राजन् !, जो पुरुष किसी पदार्थ पानेकी इच्छा करता है, अरु हाटकर फिरै नहीं, तो अवश्य तिसको पाता है। देह इंद्रियोंका अभ्यास इंसको दृढ हो रहा है, तिसकरि बहुरि बहुरि