पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८००

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विपश्चिद्देशांतरन्नमवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६. (१६८१ ) देह इंद्रियोंको पाता है, जब तिनते उलटिकरि आत्माका अभ्यास करे, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवैगी, देह इंद्रियोंका वियोग हो जावेगा, ताते सदा आत्मपदका अभ्यास करहु, तिसकार आत्मपद प्राप्त होवैगा ॥ मुनीश्वर उवाच ॥ हे वधिक ! इसप्रकारे तु सिद्ध राजा होवैगा अरु मंत्री तुझको उपदेश करेगा, तब तू राज्यका त्याग करेगा, अरु वनविर्षे जावैगा, उपदेश करनेवाला मंत्री अरु अपर मंत्री सेनायुक्त तुझको कहेंगे, कि तू राज्य कर. सब कहि रहेंगे, परंतु तेरा चित्त विरक्त होवैगा, राज्यको अंगीकार न करैगा, तिस वनविषे संतका स्थान होवैगा, तहाँ जायकार तू स्थित होवैगा, परम विरागसंपन्न होवैगा तव उनका कथाप्रसंग तुझको स्पर्श करैगा, अरु संतते कछु मांगिये नहीं तौ भी अमृतरूपी वचनोंकी वर्षा करते हैं, जैसे पुष्पते सुगंधि माँगिये नहीं तो भी प्राप्ति होती है, तैसे सजानते माँगेविना भी अमृत प्राप्त होता है, जब संतके अमृतवचन सुनता है, तब इसको विचार उत्पन्न होता है कि मैं कौन हौं, अरु यह जगत् क्या है, अरु जगत् किससे उपजा है, तब तू उनके हृदयको पायकरि इस प्रकार जानैगा कि, मैं अचेतन चिन्मात्रस्वरूप हौं, अरु जगत् मेरा आभास है, अरु चित्तका फुरणाही जगत्का कारण हैं, सो चित्तही मेरेविचे नहीं, तौ जग कैसे होवे, जगत् भी मेरेविषे है नहीं मैं अपनेही आपविषे स्थित हौं । हे वधिक । इसप्रकार सर्व अर्थते मनको शून्य कारकै अपने स्वरूपविर्षे स्थित होवैगा, तब परमानंद निर्वाणपदको प्राप्त होवैगा ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे सिद्धनिर्वाणवर्णनं नाम द्विशताधिकद्विचत्वारिंशत्तमः सर्गः ॥ २४२ ॥ द्विशताधिकत्रिचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४३. विपश्चिद्देशांतभ्रमवर्णनम् ।। मुनीश्वर उवाच ।। हे वधिक ! इसप्रकार तेरी भावी है, सो सब मैं तुझको कही है, आगे जो भला जानता है, सो तू कर ॥ अग्निरुवाच ॥ है। १०६