पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०३

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( १६८४) योगवासिष्ठ ।' चितवना करी कि मृग होऊ, तब स्वरूप प्रतिभा मेरे ताई फुरी, मैं मृग हो गया, तुम्हारी सुधिविर्षे एक पहाडकी कंदराविषे विचरत भंया अरु तिसका राजा शिकार खेलने चला, उसने मुझको देखा तब मेरे पाछे घोड़ा उडाया, तिसके आगे मैं दौडता जङ अरु घोडेका वेग तीक्ष्ण था, मुझको उसने पकड़ लिया, अपने गृहमें ले आया, तीन दिन राखा, परंतु बहुत सुंदर चेष्टा देखी, तिस कारणते प्रसन्नताते यहाँ ले आया ॥ हे राजा दशरथ | अब मैं मृगके शरीरको त्यागिकार मनुव्यका शरीर पाया है, जो कछु तैने पूछा था सो सब तुझको कहा है ॥ वाल्मीकिरुवाच ॥ हे अंग ! जब इसप्रकार विपश्चित कह रहा था, तब रामजीने विपश्चित्सों प्रश्न किया ॥ राम उवाच ॥ हे विपश्चित् । वह मृग तो अपर सृष्टिका था, यहां क्योंकर आया ॥ भास उवाच ॥ हे रामजी ! जहां वह शव पड़ा था, वह भी अपर सृष्टिका था, एक कालमें आकाशमार्गविषे दुर्वासा ऋषीश्वर ध्यान लगाये बैठा था, तिस मार्गकरि इंद्र पृथ्वीको आया, यज्ञके निमित्त मार्ग विषे जो दुर्वासा बैद्य था, तिसको शव जानकर इंद्रने चरण लगाया, तब वह समाधिते उतरकर इंद्रकी ओर देखत भया, अरु शाप दिया कि हे शक्र ! तुझने शव जानिकार गर्व कारकै मुझेको चरण लगाया है ताते तेरे यज्ञको एक मृतक शव नाश करेगा, जिस स्थान पर वह पड़ेगा, सो पृथ्वी भी नाश होवैगी, जब ऐसे उस ऋषिने शाप दिया, अरु इंद्र यज्ञ करने लगा, तब अपर सृष्टिते वह शव आनि पड़ा, पृथ्वी चूर्ण हो गई, वह तौ उस प्रकार गिरा, अरु मैं तपरूपी मुनीश्वरके वर कारकै मृग होकार तुम्हारी सभाविषे आया हौं । हे रामजी ! जो असत् होता तौ प्रगटन होता, अरु जो सत् होता तौ स्वप्नरूप न होता, जो स्वप्नकी सृष्टिका था ॥ हे रामजी ! तुम हमारी स्वप्नसृष्टिविषे हौ, अरु हम तुम्हारी सृष्टिके स्वप्रविषे हैं, जैसे यहस्वप्नपदार्थका होना हुआ है, तैसे यह शवका होनाभी हुआ है, अरु मृगका भी हुआ हैं, जैसे यह सृष्टि हैं, तैसे वह सृष्टि भी। है, जो यह सृष्टि सत है तौ वहभी सत् है, परंतु वास्तवते न यह सत् है, न वह सत् है, यह भी भ्रममात्र है, वह भी भ्रममात्र है, सत् वस्तु वही