पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०७

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परंतु जब आत्माकयुक्त होकर जहां का अविद्या अब नए हक ( १६८८) योगवासिष्ठ । राजाके मत्रीका उपदेश भी तुझने श्रवण किया, अरु विपश्चितका वृत्तांत • भी श्रवण किया, विपश्चितके मुखते भी श्रवण किया,अब इस विपश्चितकी अविद्या नष्ट होती है, हमारे आशीर्वादते अरु यथार्थं वचनकारकै अब यह जीवन्मुक्त होकार विचरैगा,इसकी अविद्या अब नष्ट होती है, मेरे उपदेशकारे जीवन्मुक्त होकारे जहाँ इसकी इच्छा होवै तहां विचरै, परंतु जब आत्माकी ओर आया तब अविद्या नष्ट भई, आत्मतत्त्वको यथार्थ न जानना इसका नाम अविद्या है, सो आत्मज्ञानकरिकै नष्ट हो जाती है, जैसे अंधकार तबलग रहता है, जबलग सूर्य उद्यं नहीं भया, जब सूर्य उदय होता है, तब अंधकार नष्ट होता है, तैसे अविद्या तब्लग अनंत है, जबलग आत्माकी ओर नहीं आया, जब आत्माका साक्षाकार उदय हुआ, तब अविद्याका अत्यंत अभाव हो जाता है, अविद्या अविद्यमान है, असम्युकदर्शीको सत् भासती है, जैसे मृगतृष्णाका जल अविद्यमान है, विचार कियेते अभाव हो जाता है, तैसे अविद्याका भली प्रकार विचार कियेते अभाव हो जाता है । हे रामजी ! अविद्यारूपी विषकी वल्ली है, सो देखनेमात्र फूलसहित सुंदर भासर्ती हैं, परंतु स्पर्श कियेते काँटे चुभते हैं, अरु फल भक्षण कियेते कष्टको प्राप्त करती हैं, सो फूल फल क्या हैं, जेते कछु शब्द स्पर्श रूपरस गंध इंद्रियके विषय हैं, जो देखने मात्र सुंदर भासते हैं, सो यही फूल फल हैं, जब इनको स्पर्श करता है, तब तृष्णारूपी कंटक चुभते हैं, अरु इंद्रियोंके भोगनेसों राग द्वेष कष्ट प्राप्त होता है । हे रामजी ! आकाशविषे इंद्रधनुष नानाप्रकारके रंग धारे दृष्ट आता है, परंतु अंतरते शून्य है, अणहोता भासता है, तैसे अविद्या अणहोती भासती है, जैसे वह धनुष जलरूप मेघके आश्रय रहता है, वैसे यह अविद्या जड मूर्खके आश्रय रहती है, अरु अविद्यारूप धूड है, सो जिसको स्पर्श करती हैं, तिसको आवरण कार लेती है, जबलग अर्थ नहीं जाना, तबलग भासती है, विचार कियेते कछु नहीं निकसता, जैसे सीपीविषे रूपा भासता है, विचार कियेते अभाव होता है, जैसे विचार कियेते अविद्या नष्ट हो जाती है, अरुy