पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

स्वर्गनरकारब्धवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६८९) चंचल है, अरु भासती है ॥ हे रामजी ! अविद्यारूपी नदी है, अरु तृष्णारूपी तिसविषे जल है, इंद्रियोंके अर्थरूपी घुमरधेर हैं, रागरूपी तिस विषे हँदुये हैं, जो पुरुष इस नदीके प्रवाहविषे पडा है, तिसको बडे कडे प्राप्त होते हैं, तृष्णारूपी प्रवाहविषे बहते जाते हैं, तिनकी अविद्यारूपी नदीका अंत नहीं आता, अरु जो किनारेके सन्मुख होकर पारको प्राप्त हुये हैं, तिनको कोङ कष्ट नहीं होता, वैराग्य अरु अभ्यासरूपी बेड़ीपर चढे हैं, जो अविद्यारूप हैं, तिनविषे जो भावना करते हैं सो मूर्ख हैं, यह अविद्याका विलास है, एक ऐसी सृष्टि है, जिसविषे सैकड़ों चंद्रमा उदय होते हैं, अरु सहस्र सूर्य उदय होते हैं, अरु कई ऐसी सृष्टि हैं, तिनविषे जीव सदा समताभावको लिये विचरते हैं, अरु सदा आनंदी रहते हैं, अरु कई ऐसी सृष्टि हैं, जो अंधकार कबहूँ नहीं होता, अरु कई ऐसी सृष्टि हैं, जहाँ प्रकाश अरु तप जीवके आधीन हैं; जेता कछु प्रकाश चाहे तेताही करे; कई ऐसी सृष्टि हैं, जहां जीव नमरते हैं, न बुड्ढे होते हैं, सदा एकरस रहते हैं, प्रलयकालविषे सब इकट्टेही मरते हैं, कहूँ ऐसी सृष्टि हैं, जहाँ स्त्री कोऊ नहीं, कहूँ पहाडकी नई जीवके शरीर हैं । हे रामजी ! इनते लेकर जो अनंत ब्रह्मांड हैं, सो फुरते हैं, सो अविद्याका विलास है, जैसे समुद्रविषे तरंग वायुकारि फुरते हैं, वायुविना नहीं फुरते तैसे अविद्यारूपी बायुके संयोगते परमात्मरूपी समुद्रविषे जगत्रूपी तरंग उठते हैं, अरु मिटि भी जाते हैं । हे रामजी बड़े बड़े मणिमय अरु मोतीमय स्वर्णमय धातुमय ऐसे जो स्थान हैं, अरु भक्ष्य भोज्य लेह्य चोष्य चार प्रकारके तृप्तिकर्ता पदार्थ हैं, घृतरूप स्थान पदार्थ हैं, अरु गन्नेके रसके समुद्र हैं, माखन दही दूधके समुद्र हैं, अमृतके तलाव हैं, अरु बड़े बड़े कल्पवृक्ष तमालवृक्षते आदि लेकर जो सुंदर स्थान हैं, अरु सुंदर अप्सरा हैं, अरु बडे दिव्य वस्त्र हैं, इनते आदि लेकर जो पदार्थ हैं सो सब संकल्परूप हैं, अविद्याके रचे हुये हैं, इनकी जो तृष्णा करते हैं सो मूर्ख हैं, तिनके जीवनेको धिक्कार है । हे रामजी ! यह अविद्याका विलास है, विचार कियेते कछु नहीं निकसता, जैसे मरुस्थलविषे अणहोती नदी भासती है, विचार कियेते अभाव हो जाती है, तैसे