पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८०९

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( १६९० ) योगवासिष्ठ । आत्मविचार कियेते अविद्याका विलास जगत अभाव हो जाता है, जिसको आत्माका प्रमाद है, तिसको देवता मनुष्य पशु पक्षी आदिक इष्ट अनिष्ट अनेक प्रकारके पदार्थ भासते हैं, कारणकार्यभाव कारकै जगत् स्पष्ट भासता है, अरु जिसको आत्माका अनुभव भया है, तिसको सर्व आत्मा भासता है । हे रामजी । एक सद्दष्ट सृष्टि है, अरु एक अद्दष्ट सृष्टि है, यह जो प्रत्यक्ष भासती है सो सहलु सृष्टि है, अरु दुष्ट नहीं आती सो अदृष्ट सृष्टि है, सो दोनों तुल्य हैं, अरु आकाशविषे जो सृष्टिको सिद्ध रचि लेते हैं सो क्या है, संकल्पमात्र है क्योंकि उनकी सृष्टि परस्पर अदृष्ट है, अरु अनेक प्रकारकी रचना है, उनकी स्वर्णकी पृथ्वी है, रत्न अरु मणिसाथ जड़ी हुई है अरु इंद्रियों के अनेक प्रकारके विषय हैं, अरु अमृतकुंड भरे हुये अरु अपने आधीन तम प्रकाश हैं, अरु अनेक प्रकारकी रचना बनी हुई है, तो क्या है, संकल्पमात्र हैं, क्योंकि तिसी प्रकार यह जगत् संकल्पमात्र हैं, जैसा जैसा संकल्प होता है, तैसी तैसी सृष्टि आत्माविषे हो भासती है । हे रामजी 1 सृष्टिरूपी अनेक रत्न आत्मरूपी डब्बेविषे हैं, जिस पुरुषको आत्मदृष्टि प्राप्त भई है, तिसको सर्व सृष्टि आत्मरूप है, अरु जिसको आत्मदृष्टि नहीं, तिसको सवै सृष्टि जगत् भिन्न भिन्न भासता है, जैसा संकल्प दृढ होता है, तैसा पदार्थ हो भासता है, जैता कछु जगत् भासता है,सो सब संकल्पमात्र है, जो तुझको ऐसा तीव्र संवेग होवे, जो आकाशविषे नगर स्थित होवै, तब वही भासने लग जावै॥ हे रामजी। जिस ओर यह पुरुष दृढ़ निश्चय करता है, सोई सिद्ध होता है, जो आत्माकी ओर एकत्र होता है, तब वही सिद्ध होता है, जो दोनों ओर होता तब भटकना होता है, जो जगतकी सत्यताको छोडिकार आत्मपरायण हो रहे, तो तीव्र भावना कारकै मोक्ष प्राप्त होता है, जो संसारकी ओर भावना होती है, तो संसारकी प्राप्ति होती है, जैसे अभ्यास करता है, सोई सिद्ध होता है, अरु आदि जो सृष्टि हुई है, सो अकारण है, तिसविषे दूसरी वस्तु तौ कछु नहीं, वहीरूप हैं, बहुरि जैसी जैसी भावना होती हैं, तिसके अनुसार जगत् भासता है, जिसकी भावना धमकी ओर होती है, अरु सकाम होता है, तिसको स्वर्गादिक सुख