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योगवासिष्ठ।

उपाय करोगे, तब आनन्दको प्राप्त होहुगे॥ हे रामजी! यह चित्तरूपी उन्मत्त वैताल है, जिसको स्पर्श करता है, तिसको अशुद्ध करता है. अर्थ यह कि, जिसका धैर्य अरु निश्चय विपर्ययकरि देता है, तिसकरि दुःखको प्राप्त करता है, अपने स्वरूपते गिराय देता है, जो बडे बडे साधु महंत हैं, सो भी इसके भयकरिकै समाधिविषे स्थित होते हैं, जो किसी प्रकार अहंकार अभाव होवै॥ हे रामजी! अहंकाररूपी पिशाच जिसको स्पर्श करता है, तिसको आप जैसा करिलेता है, जैसा आप तुच्छ करता है, तैसा अपरको तुच्छ करताहै, अरु उजाडविषे रहता है, जहां संतसंग अरु सच्छास्त्रका विचार नहीं, अरु आत्मज्ञानका निवास नहीं, तहां शून्य उजाडरूपी देहमंदिरविषे रहता है,जो कोऊ ऐसे स्थानविषे प्रवेश करता है, तिसको प्रवेशकरि जाता है॥ हे रामजी! जिसको अहंकाररूपी पिशाच लगा है तिसका धनकरि कल्याण नहीं होता न बांधवमित्रकरि कल्याण होता है, अरु अहंकार पिशाचसे मिला हुआ जेती कछु क्रिया कर्म करता है, सो अपने नाशकेनिमित्त करता है, विषकी वल्लीको उपजावता अरु बढावता है॥ हे रामजी! जो पुरुष विवेक अरु धैर्यते रहित है, तिसको अहंकाररूपी पिशाच शीघ्रही खाइ जाता है, सो कैसा है, सब रूप है जिसको स्पर्श करता है, तिसको शवकरिछांडता है, अरु जिसको अहंकाररूपी पिशाच लगा है, सो नरकरूपी अभिविषे काष्ठकी नाईं जलैगा, अरु अहंकाररूपी सर्प है, जिस देहरूपी वृक्षके छिद्रविषे विषको धारे बैठा है, तिसके निकट जो जावैगा, तिसको मृतक करैगा, जो अहंममभावको प्राप्त होवैगा सो मृतक समान होवैगा जन्ममरणको पावैगा, अहंकाररूपी पिशाच जिसको लगा है, तिसको मलिन करता है, स्वरूपते गिरायकरि संसाररूपी गर्तविषे डारता है, अरु बडी आपदाको प्राप्त करता है, जेती आपदाको अहंकार प्राप्त करता है, सो बहुत वर्षपर्यंत करता रहै, तौ भी आपदाका वर्णन न कर सकौंगा॥ हे रामजी! यह जो अभिमान है, कि मैं हौं, मैं मरता हौं, मैं दग्ध होता हौं, मैं दुःखी हौं, मनुष्य हौं इत्यादि कल्पना जो मलिन उठती हैं, सो