पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८११

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(१६९२) योगवासिष्ठ । अथवा किसी कारण कार्यकारि हुआ है १॥ वसिष्ठ उवाच ।। हे रामजी ! समुद्रते तरंग उठते हैं, तैसे ब्रह्मविषे यह प्रतिभा स्वाभाविक उठती है, जैसे पवनविषे फुरणा स्वाभाविक होता है, सो आत्माको चमत्कार जगत् रचना स्वाभाविक होती है, सो वहीरूप है, तिसते इतर कछु नहीं, चिन्मात्रविषे जो चेतना फुरी है सो जैसी फुरी है तैसे स्थित है, जबलग इसते इतर अपर फुरना नहीं होता, तबलग वही रहता है, जिस प्रतिभाकारिकै कार्यकारण भासता है, जैसे शुद्ध चिदाकाशविषे स्वप्नकी सृष्टिभासती है, तिसविषे साररूप वही है, वही चित्त चमत्कार करिकै फुरता है, जैसे समुद्रविषे तरंग फुरते हैं, सो समुद्ररूप हैं, तिसते इतर कछु वस्तु नहीं तैसे जेता कछु शब्द अर्थ जगत् भासता है, सो वही चिन्मात्र हैं, इतर कछु वस्तु नहीं, जिनको ऐसे यथार्थ अनुभव हुआ है, जिनको जगत् स्वप्नपुर अरु संकल्पनगरवत् भासता हैं, पृथ्वी आदिक पदार्थ पिंडाकार नहीं भासते, उनको सब ब्रह्मरूप हो जाता है । हे रामजी । जो वस्तु व्यभिचारी नाशवंत है सो अविद्यारूप है, अरु जो अव्यभिचारी अविनाशी वस्तु हैं, सो ब्रह्मसत्ता है, सो ब्रह्मसत्ता ज्ञानसँविरूप हैं, अपने भावको कदाचित् नहीं त्यागती, अनुभवकारिकै सर्वदा काल प्रकाशती है, तिसविषे अविद्या कैसे होवै, जैसे समुद्रविषे धूडका अभाव है, तैसे आत्माविषे अविद्याका अभाव है, जेते कछु आकार दृष्ट आते हैं, सो सब चिदाकाशरूप हैं, जैसे तू मनविषे संकल्प धारिकार इंद्र हो। बैठे, अरु चेष्टा भी इंद्र जैसी करने लगे, अथवा ध्यानकार इंद्र रचै, जैसे वह ध्यानकर प्रतिभा सिद्ध हो आवै, तो जबलग संकल्प रहै, तबलग वही भासै, जब इंद्रका संकल्प क्षीण हो जावै, तब इंद्रभावकी चेष्टा भी निवृत्त हो जाती है सो संकल्पकार वही चिन्मात्र इंद्ररूप हो भासता है, तैसे जैता कछु जगत् भासता है, सो सब चिन्मात्ररूप है, संवेदनक रिकै पिडाकार हो भासता है, जब संवेदन ऊरणा निवृत्त होता हैं, तब सब जगत् आत्मरूप भासता है, अरु ब्रह्मसत्ता अपने आपविध स्थित है, जैसा ऊरणा होता है, तैसा हो भासता है, सब जगत् तिसका चमत्कार है, अरु निराकार है, जैसे समुद्रविषे तरंग समुद्ररूप होते हैं, तैसे