पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१४

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अविद्यानाशीपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१६९५) स्कार हो भासती है, आत्माते इतर कछु नहीं, परंतु अज्ञानकारि भिन्न भिन्न भासती है, अरु जो जागा है, तिसको अपना आप भासता है, जैसे अपनी चेतनताही स्वप्नपुर होकर भासती है, तैसे जगत्के पूर्व जो चेतनसत्ता थी, वही जगतरूप होकार भासती है, अरु जगत् आत्माते कछु भिन्न वस्तु नहीं, वही स्वरूप है, जैसे जलका स्वभाव द्रवीभूत होता है, तिसकरिकै तरंगरूप हो भासता है, तैसे आत्माका स्वभाव चेतन है, सोई आत्मसत्ता चेतनताकारकै जगत् आकार हो असती है, इसप्रकार जानिकरि जो परमशांति निर्वाणपद है, तिसविषे स्थित होहु ।। हे रामजी ! जगत् कछु है, अरु प्रत्यक्ष भासता है, असतही सत् होकार भासता है, यही आश्चर्य है, जो निष्किचन है, अरु किंचनकी नई होकार भासता है, आत्मसत्ता सदा अद्वैत अरु निर्विकार है, परंतु अज्ञानदृष्टिकारकै नानाप्रकारके विकार भासते हैं। जब सर्व विकारको निषेध करि असतरूप जानिये तब सर्वके अभाव हुये आत्मसत्ता शेष रहती हैं, जैसे शून्य स्थानविषे अनहोता वैताल भास आता है, तैसे अज्ञानीको अनहोना जगत् आत्माविषे भास आता है, अरु जो पुरुष स्भावविवे स्थित हुये हैं, तिनको जगत् भी अद्वैतरूप आत्मा भासता है, जब सच्छास्त्र अरु संतकी संगति होती है, तिनके तात्पर्य अर्थविषे जय दृढ अभ्यास होता है, तब स्वभावसत्ताविषे स्थित होती है, अरू जिन पदार्थके पानेनिमित्त यह यत्न करता है, सो मायिक पदार्थ, बिजुलीके चमत्कारवत् उदय भी होते हैं, अरु नष्ट भी होते हैं, यह दार्थ विचारविना सुन्दर भासते हैं, इनकी इच्छा मूर्ख करते हैं, या हेते कि उनको जगत् सत् भासताहै, अरु ज्ञानवानको जगत्पदार्थकी तृष्णा नहीं होती, काहेते कि वह जगत्को मृगतृष्णाकी नई असत् जानता है, अरु ब्रह्मभावनाविषे दृढ़ है, अरु अज्ञानीको जातकी भावना है, तोते ज्ञानीके निश्चयको अज्ञानी नहीं जानता, ज्ञानीके निश्चयको ज्ञानीही जानता है, जैसे सोयेहुये पुरुषको निद्वादोरिकै स्वप्न आता हैं,तिसविषे जगत् भासता है, अरु जागृत पुरुष जो तिसके निकट बैठा है, उसको वह स्वजगत् इच्छा मूख जगत्पदार्थकी जानता है। अनीके निश्चय