पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१५

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( १६९६ ) योगवासिष्ठ । नहीं भासता हैं, वह असत् है,तौ तिसके निश्चयको स्वप्नवाला नहीं जानता, अरु स्वप्नवाले निश्चयको वह जागृत्वाला नहीं जानता, तैसे ज्ञानीके निश्चयको अज्ञानी नहीं जानता, जैसे मृत्तिकाकी सेनाको बालक सेनाकार मानता है, जो जाननेवाले बडे पुरुष हैं,तिनको सब मृत्तिकारूप भासता है, जब वह बालक भली प्रकार जानता है, तब उसको भी सेना अरु वैतालका अभाव हो जाता है, मृत्तिकारूप भासती, तैसे ज्ञानवान्को सब जगत् ब्रह्मरूपही भासता है । हे रामजी ! जब इस पुरुषको आत्माका अनुभव होता है, तब जगत्के पदार्थकी इच्छा नहीं रहती, जैसे स्वप्नविषे किसीको मणि प्राप्त होती है, तब प्रीति करिकै तिसको रखता है, जब जागता है तब उसको भ्रम जानिकारे तिसकी इच्छा नहीं करता, तैसे जब आमत्पदविष जागैगा, तब जगत्के पदार्थको इच्छा न करेगा, जैसे मरुस्थलकी नदीको असन् जानता है तब उसविषे जलपानके निमित्त यत्न नहीं करता, तैसे सब जगतको असच जानता है, तब जगदके पदार्थकी इच्छा नहीं करता, जिस शरीरके निमित्त यत्न करता है, सो शरीर भी क्षणभंगुर है, जैसे पत्रके ऊपर जलकी बूंद आनि स्थित होती है, सो क्षणभंगुर असार है, पवन लगैते क्षणविषे गिर जाती हैं, तैसे यह शरीर नाशवंत हैं, जैसै मृग धूपकार तपाहुआ मरुस्थलकी नदीको सत् जानिकार जलपान करनेनिमित्त दौडता हैं, सो मूर्खताकारकै कष्ट पाता है, परंतु तृप्त नहीं होता, तैसे मूर्ख मनुष्य विषयपदार्थको सवजानिकार तिनके निमित्त यत्न करते हैं, अरु कष्ट पातेहैं अरु तृप्त कदाचित् नहीं होते । हे रामजी ! यह पुरुष अपना आपही मित्र हैं, अरु अपना आपही शत्रु है, जब सत्र मार्गविषे विचरता है, अरु, अपना उद्धार करता हैं, तब पुरुषप्रयत्न करके अपना आपही मित्र होता है, अरु जो सत् मार्गविषे नहीं विचरता अरु पुरुषप्रयत्न करके अपना उद्धार नहीं करता, जन्म मरण संसारविणे आपको डारता है, सो अपना आपही शत्रु हैं, अरु जो अपने आपको यत्न करिकै उद्धार करता है, सो अपने ऊपर दया करता है। हे रामजी। इंद्रियका विषयरूपी चीकड है, जो इसविषे गिरा हुआ है, अरु अपने