पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१६

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इन्द्रियजयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १६९७) ऊपर निकासनेकी दया नहीं करता, सो महा अज्ञान तमको प्राप्त होता है, जो पुरुष इंद्रियोंको जीतिकै आत्मपदविषे स्थित नहीं होता तिसको शांति नहीं प्राप्त होती, जब बालक अवस्था होती है, तब शून्यबुद्धि होती है, अरु वृद्ध अवस्थाविषे अंग क्षीण हो जाते हैं, अरु यौवन अवस्थाविषे इंद्रियोंके जीतनेको समर्थ नहीं होता, तो कब होना है, अपर जो तिर्यक् आदिक योनि हैं, सो मृतकवत् हैं, यत्नका समय यौवन अवस्था है, काहेते कि, बालक अवस्था तौ जडणुङ्गरूप है, वृद्ध अवस्था भी महानिर्बल जैसी है, तिसविषे अपने अंगही उठावने कठिन हो जाते हैं, तो विचारकै क्या समर्थ होवैगा, वह तौ बालकवत् है, ताते कछु यत्न यौवन अवस्थाविषे होता है, जो इस अवस्थाविपे भी लंपट रहा, सो महा अनिष्ट' नरकको प्राप्त होवैगा ॥ हे रामजी ! विषयविषे प्रसन्न नहीं होना, यह शरीर नाशरूप है, तौ विषय किसको भोगने हैं, श्रुतिकारकै भी जानाजाता है,अरु अनुभव करके भी जानाजाता है कि,यह शरीर नाशरूप है,क्योंकि इस शरीरविषे सत्भावना कारकै,जो विषयके सेवनको यत्न करता है, तिसते परे मूर्ख कहूँ नहीं वही मूर्ख है, ताते जब इंद्रियोंको जीतेगा, तब जन्मजन्मांतरको प्राप्त नहोवैगा ॥ हे रामजी ! तुम जागढ़ आपको अविनाशीरूप जान, अच्युत परमानंद जानहुँ, यह जगत् मिथ्यारूप भ्रम उदय हुआ है, इसको त्याग देहु ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे अविद्यानाशोपदेशो नाम द्विशताधिकृषट्चत्वारिंशत्तम सर्गः ॥ २१६ ॥ द्विशताधिकसप्तचत्वारिंशत्तमः सर्गः २४७. . इंद्रियजयवर्णनम् ।। श्रीराम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुम सत् कहते हौ कि,ईद्रियके जीतेविना शांति नहीं प्राप्त होती, ताते इंद्रियोंके जीतूनेका उपाय कहौः ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ है रामजी ! जिस पुरुषको बडे भोग आनि प्राप्त हुये हैं,अरु इन इंद्रियों को जीता नहीं, तब वह शोभा नहीं पाता,जोत्रिलोकीका राज्य आनि प्राप्त होवे, अरु इंद्रियों को जीता नहीं तिसकी उपमा भी कछु