पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१७

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( १६९८) योगवासिष्ठ । नहीं, जो बड़ा शुरवीर है, अरु इंद्रियोंको जीता नहीं तो उसकी भी शोभा कछु नहीं, अरु बड़ी आयुर्बल है जिसकी; चिरपर्यंत जीता है, अरु इंद्रियां नहीं जीती तो उसका जीना भी व्यर्थ है, जिस प्रकार -इंद्रियों जीती जाती हैं, अरु आत्मपद प्राप्त होता है, सो प्रकार सुन ॥ हे रामजी ! इस पुरुषका स्वरूप अचिंत्य चिन्मात्र है, तिसविषे जो सवित् फुरी है तिस ज्ञान संवितुको अंतःकरण'दृश्य जगतसाथ संबंध हुआ है, तिसका नाम जीव है, जहाँते चित्त फुरता है, तहाँही चित्तको स्थित करु, तब इंद्रिय अभाव हो जावैगा, इंद्रियोंका नायक मन है, जब मनरूपी मर्तवारें हस्तीको वैराग्य अरु अभ्यासरूपी कुटेसाथ वश करै, तब तेरी जय होवैगी, सब इंद्रियां रोकी जावेंगी, जैसे राजाके वश कियेते सब सेना भी उसके वश हो जाती है, तैसे मनको स्थित कियेते. सब इंद्रियाँ वश हो जावेंगी ॥ हे रामजी! जब इंद्वियोंको वश करैगा,तब शुद्धआत्मसत्ता तुझको भासि आवैगी,जैसे वर्षाकालके अभावते शरत्कालविषे शुद्ध, निर्मल आकाश भासता हैं, कुहिड अरु 'बादलका अभाव हो जाता है, तैसे जब मनरूपी वर्षाकालका अभाव हो जावैगा, अरु वासनारूपी कुहिडका अभाव होजावैगा, तब पाछे शुद्ध निर्मल आत्मसत्ता भासेगी । हे रामजी । जेते कछु पदार्थ जगवविवे दृष्ट भासते हैं, सो सब अस्वरूप हैं, जैसे मरुस्थलकी नदी असवरूप होती है, तैसे जगत्के पदार्थ असत्रूप हैं, इनविषे तृष्णा करना अज्ञान है,जो पदार्थ प्रत्यक्ष आनि प्राप्त होवे,तिनको त्यागिकार वृत्ति आत्माकी ओर आवै, तब जानिये कि मुझको इंद्रका पद प्राप्त हुआ है, अरु विषयविषे आसक्त होनाही बडी कृपणता है, अरु इनते उपरत होना यही बड़ी उदारता है, ताते मनको वश करतब तेरी जय होवै, जैसे तप्त पृथ्वी ज्येष्ठं आषाढविणें होती है, अरु चरणविषे चरणदासी चढाई,तब इसको तप्त नहीं होती, अरु सब पृथ्वी शीतल हो जाती है, तैसे अपने मन वश कियेते जगत् आत्मरूप हो जाता है । हे रामजी ! जिसप्रकार जनेद्रने मनको वश किया है, तैसे तू भी मनको वश करु, जिस जिस ओर मन जावे, तिस तिस ओरते रोकहु जब दृश्य जगतकी ओरते मनको रोकेगा