पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८१८

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|: इन्द्रियजयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. ( १६९९) तब वृत्ति संविद् ज्ञानकी ओर आवैगी, जब संवित् ज्ञानकी ओर आई, तब तुझको परम उदारता प्राप्त होवैगी, अरु शुद्ध आत्मसत्ता अनुभव होवैगा, तप कारकै संवितका अनुभव होना कठिन है, अरु तीर्थ दान करिकै भी कठिन है, परंतु मनके स्थिर करनेकार अनुभवकी प्राप्ति सुगम होती है, सो मन स्थिर करनेका उपाय यही है कि, संतकी संगतीकरनी, अरु रात्रि दिन सच्छास्त्रको विचारना; सर्वदा काल इस उपायकार मन . शीघही स्थिर होता है, जब मन स्थिर हुआ तब आत्मपदका अनुभव होता है, जिसको आत्मपद प्राप्त हुआ है, सो संसारसमुद्रविषे डूबता नहीं, अरु चित्तरूपी समुद्र है, तिसविषे तृष्णारूपी जल हैं, अरु कामनारूपी लहरी हैं, जिस पुरुषने सम संतोषकार इंद्रियाँ जीती हैं, सो : चित्तरूप समुद्रविषे गोते नं खावैगा, इंद्रियोंको जीतिकार जिसने आत्म-, पद पाया है, तिसको नानीत्व जंग बहुरि नहीं भासता, जैसे मरुस्थलकी निराकार नदीविषे लहरी भासती हैं, जब भली प्रकार निकट जायकार विचार कर देखिये, तब लहरिसंयुक्त बहती दृष्ट नहीं आती, तैसे यह जगत् आत्माका आभास हैं, जब भली प्रकार विचारि देखिये, तब नानात्व दृष्ट नहीं आता, आत्मसत्ताही किंचन करिकै जगतरूप हो भासती हैं ॥ जैसे जल अपने इवता स्वभावकारिकै तरंगरूप हो भासता है, तैसे आत्मसत्ता चेतनताकारकै जगरूप हो भासती है । हे रामजी ! जब आत्मबोध होता है, तब बहुरि दृश्यभ्रम नहीं भासता, जैसे साकाररूप नदीका भाव निवृत्त हुये बहुरि बहती है, अरु जब निराकार नदीका सवद्भाव निवृत्त होता है, तब फोर नदीका सद्भाव क्यों होता है, निराकार मृगतृष्णाकी नदी जब ज्योंकी त्यों जानी, तब फेरि सत्य नहीं होती हैं ॥ हे रामजी । वास्तवते न कर्म हैं, न इंद्रिय है, न कर्ता है, कछु उपजा नहीं, नानाप्रकार दृष्ट आते हैं, परंतु कछु हुआ नहीं, जैसे स्वप्नविषे नानाप्रकारकी क्रिया कर्म आते हैं, परंतु आकाशरूप हैं, कछु हुआ नहीं, तैसे यह भी जान, आकाशरूप आत्माविषे आकाशरूप जगत् स्थित है, जैसे अवयवी अरु अवयवविषे कछु भेद नहीं, तैसे आत्मा अरु जगविषे कछु भेद