अहंकाररूपी पिशाचकी शक्ति है, आत्मस्वरूप नित्यशुद्ध चिदाकाश सर्वगत सच्चिदानंद है, सो सबका अपना आप है, अहंकारके वशते आपको परिच्छिन्न अलेप दुःखी मानता है, जैसे आकाश सर्वगत अलेप है, तैसे आत्मा सर्वविषे अलेपहै, अरु सर्वसाथ असबंध है, अहंकारके संबंधते रहितहै॥ हेरामजी! ग्रहण त्याग चलना बैठना इत्यादिक जेतीकछु क्रिया होतीहै, सो देहरूपी यंत्र अरु वायुरूपी रसड़ीकरि अहंकाररूपी यंत्री करावता है, आत्मा सदा निर्लेप है. सबका अधिष्ठान रूप है, कारणकार्य भावते रहित है, जैसे वृक्षकी ऊँचाईका कारण आकाश है, अरु निर्लेप है, तैसे आत्मा सर्व चेष्टाका कारण अधिष्ठानहै, अरु निर्लेप है, जैसे आकाश अरु पृथ्वीका संबंध नहीं, तैसे आत्मा अरु अहंकारका संबंध नहीं, चित्तको जो आपजानतेहैं, सोमहामूर्ख हैं, आत्मा प्रकाशरूप है, नित्य सर्वगत है, विभु है, चित्त मूर्ख है, जड़ है,आवरण करताहै, हे रामजी! आत्मा सर्वज्ञ है, चेतनरूपह, चित्त मूढ है,अरु पत्थरक्त जड़ है, इसको दूरकरहु, इसकाअरु तेरा संबंध कछु नहीं, तुममोहको तरह, देहरूपी शून्य गृहविषे चित्तरूपी वैतालका निवास है, जिसको अपने वश करता है, तिसको बांधव भी नहीं छुड़ाय सकते, अरु शास्त्र नहीं छुड़ाय सकते अरु जिसका देहाभिमान क्षीण होगया है, तिसको गुरु शास्त्र भी छुडानेको समर्थ होते हैं, जैसे अल्प चीकडते हरिणको काढि लेता है, तैसे गुरु शास्त्र निकासि लेते हैं॥ हे रामजी! जेते देहरूपीशून्य मंदिर हैं, तिन सबविषे अहंकाररूपी पिशाच रहताहै, कोऊ देहरूपी गृह अहंकार पिशाचविना भी है, अपर भयसाथ मिला हुआ है, जैसे पिशाच अपवित्र स्थानविषे रहता है, पवित्रस्थानविषे नहीं रहता, तैसे जहां संतोष, विचार, अभ्यास, सत्संगते रहित देह है, तिस स्थानविषे अहंकार निवास करता है॥ अरु जहां संतोष, विचार, अभ्यास सत्संग, होता है, तहांते अभाव हो जाता है, जेते कछुशरीररूपी श्मशान हैं, सो चित्तरूपी वैतालकरि पूर्ण हैं, अरु अपरिमित मोहरूपी वैताल है, जगत्रूपी महावनविषे मोहको प्राप्त होतेहैं, जैसे बालक मोह पाता है॥ हे रामजी! तू आपकरि अपना उद्धार करु, सत्य विचारकरिकै धैर्यको प्राप्त होहु, यह जगत्रूपी पुरातन वन है, तिसविषे जीव