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इन्द्रियजयवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्थ६. (१७०१) आत्मरूप भासता है, अरुजा अज्ञानी हैं, तिनको नानाप्रकारका जगत् भासता है, जैसे सोये हुए पुरुषको स्वकी सृष्टि सत् होकार भासती हैं, अरु जाग्रतके स्मरण वालेको स्वकी सृष्टि भी अपना अपरूप भासती है, अरु सवरूप भासती हैं, अरु ज्ञानवान्को सर्व आत्मरूप भासता है, आत्माते भिन्न कछु नहीं भासता, जब आत्म अभ्यासका बल होवे, अरु अनात्माके अभावका अभ्यास दृढ होवै, तब जगत्को अभाव हो ज? अद्वैतसत्ताका भान होवै ॥ हे रामजी! मैं तुझको बहुत उपदेश किया है, जब इसका अभ्यास होवै, तब इसका फल जो ब्रह्मबोध है, सो प्राप्त होवै, अभ्यासविना नहीं प्राप्त होता, अरु जो एक तृण लोप करना होता है, तो भी कछु यत्न होता, हैं, यह तौ त्रिलोकी लोप करना है । हे रामजी । जैसे बड़ा भार जिसके ऊपर पड़ता है, तब वह बडेही बलकार उठावता हैं, विना बड़े बल नहीं उठता; तैसे इस जीवके ऊपर दृश्यरूपी बड़ा भार पड़ा है,जब बड़ा आत्मरूपी अभ्यासका बल होवे, तब इसको निवृत्त करें, नहीं तौ निवृत्त नहीं होता, अरु यह जो मैं तेरे तांई उपदेश किया है, तिसको वारंवार विचार, मैं तौ तेरे ताई बहुत प्रकार अरु बहुत बार कहा है ॥ हे रामजी ! अज्ञानीको ऐसे बहुत कहनेकार भी कछु नहीं होता, तुझको जो मैं उपदेश किया है, सो सर्व शास्त्रका सिद्धांत है, अरु वेदका सिद्धांत है, जिसप्रकार वेदको पाठ करता है, तिसप्रकार इसको पाठ कारये, अरु विचारिये अरु इनके रहस्यले हृदयविषे धारिये, तब आत्मपदकी प्राप्ति होवे, अरु अपर शास्त्र भी इसके अवलोकनकार सुगम हो जावेंगे, ताते नित्यप्रति इस शास्त्रको श्रद्धासहित सुनै अरु कहै, आदिते लेकर अंतपर्यंत सुनै अरु कहें, तब अज्ञानी जीवको भी ज्ञानकी प्राप्ति अवश्य होवै, जिसने एक बार सुना है, अरु कहने लगा है, जो एक बार सुनि छोड़ा है, बहुरि बहुरि क्या सुनना है, तब उसकी भ्रांति निवृत्त न होवैगी, अरु जो वारंवार सुने विचारै अरु कहै, तब उसकी भ्रांति निवृत्त हो जावेगी, सब शास्त्रते मैं उत्तम युक्तिकी संहिता कही हैं, जो शीघ्रही मनविषे आती है, ऐसी जो संहिता कही है, अरु जो पुरुष मेरे शास्त्रको सुननेवाले हैं, अरु कह