पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२२

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ब्रह्मजगदेकताप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७०३) है, परंतु ऊरणकरि जगत् भासत हैं, सो जगत् भी कछु अपर वस्तु नहीं, वहीरूप है, अरु जब संवित संवेदकं फुरफ्ते रहित होती है, तब अपना चिन्मात्ररूप हो जाती है, इस काणते ज्ञानवान्को जगत् आत्मरूप भासता है, ब्रह्मते इतर नहीं भासता, जैसे किसी पुरुषका मन अपर ठौर गया होता है, तिसके आगे शब्द होता है, तो भी नहीं भासता, अरु कहता है, मैं देखा सुना कछु नहीं, जिस ओर चित्त होता हैं, तिसका अनुभव होता है, जैसे जिनका मन आत्माकी और लगता है, तिनको सब आत्माही भासता है, आत्माते इतर जगत् कछु नहीं भासता, अरु जिनको आत्मसत्ताका प्रमाद है, अरु जगत्की ओर चित्त है, तो उनको जगतही भासता है । हे रामजी ! ज्ञानवान्के निश्चयविष ब्रह्मही भासता है, अरु अज्ञानीके निश्चयविषे जगत् भासता है, तौ ज्ञानी अरु अज्ञानीका निश्चय एक कैसे होवे, स्वप्नविषे पुरुष है, तिसको स्वप्रका जगत भासता है, जागृतको वह जगत् नहीं भासता, उनको एकही निश्चय कैसे होवै ? नहीं होता, यह अर्थ है, जगतके आदि भी ब्रह्मसत्ता थी, अरु अंत भी वही रहेगी, मध्यविषे जो भासती है, सो भी वही जान आत्मसत्ताही चेतनताकार जगतरूप हो भासती है,जैसे स्वप्नसृष्टिके आदि भी ब्रह्मसत्ता होती है, अरु अंत भी ब्रह्मसत्ता होती है, अरु मध्य जो भासता है, सो भी वही है, आत्माते इतर कछु नहीं, तैसे यह जगत् आदि अंत मध्यविषे भी आत्माते इतर कछु नहीं, अरु ज्ञानवान्को सदा यही निश्चय है कि, जगत् कछु उपजा नहीं, न उपजैगा, आत्मसत्ता सदा अपने आपविषे स्थित है, जो सृर्व ब्रह्मही है, अहं त्वं यह सब अज्ञानकर भासता है, जैसे स्वप्नविषे अहं त्वं आदिकारकै अनुभव होता है,तौ अहं त्वं आदिक भी कछु नहीं, सब अनुभवरूप है, तैसे यह जगत् सर्वं अनुभवरूप हैं ॥ हे रामजीजैसे एकही रस फूल फलटास वृक्ष होकार भासता है, परंतु रसते इतर कछु नहीं, तैसे नानास्वरूप जगव भासता है, परंतु आत्माते इतर कछु नहीं; जैसे संकल्पनगर अरु स्वप्नपुर अपने अपने अनुभवते इतर कछु नहीं निकसतां, परंतु स्वरूपके विस्मरणकरके आकाररूप भासते हैं, तैसे यहं जगत आकार भासता है, सो ज्ञानरूपते