पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२५

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(१७०६) योगवासिष्ठ । द्विशताधिकपंचाशत्तमः सर्गः २५०. | शिलोपाख्यानसमाप्तिवर्णनम् । वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । इस अर्थका जो आश्रयभूत है, सो मैं तुझको कहता हौं, इस जगत्के आदि अचेत चिन्मात्र था, तिसविषे किसी शब्दकी प्रवृत्ति न थी अशब्दपद था, तिसविषे जानना फुरा, तिसका आभास जगत् हुआ, तिस आभासविषे जिसके अधिष्ठानकी अहंप्रतीति रही है, तिसको जगत् आकाशरूप भासता है, वह संसारविषे डूबता नहीं, उसको अज्ञानका अभाव है, जो डूबता नहीं, तो निकसता भी नहीं, अज्ञाननिवृत्ति ज्ञानका भी अभाव है, वह स्वतः ज्ञानस्वरूप है, अरु जिनको प्रमाद हुआ हैं, तिनको दोनों अवस्था होती हैं, जो ज्ञानवान् है, तिसको जगत् आत्मरूप भासता है अरु जो ज्ञानते रहित है। तिसको भिन्न भिन्न नाम रूप जगत् भासता है ॥ हे रामजी ! आत्मा निराख्यात है, चारों आख्यातते रहित निराभास सत्ता है, चारों आख्यात तिसविषे आभास हैं, तिनके नाम सुन एक तौ आख्यात है, एक विपर्ययाख्यात है; एक असत्याख्यात है, चौथा आत्माख्यात है,आख्यात कहिये ज्ञान, जिसको यह ज्ञान है कि, मैं आपको नहीं जानता, इसका नाम आख्यात है, अरु देह इंद्रियरूप आपआपको जानना इसका नाम विपर्ययाख्यात है,जगत् असत् जानना इसका नाम असत्याख्यात है,अरु आत्माको आत्मा जानना इसका नाम आत्माख्यात है, यह चारों ख्यात चिन्मात्र आत्मतत्वका आभास है, आत्मसत्ता निर्विकल्प अचेत चिन्मात्र है, तिसविषे वाणीकी गम नहीं है, हे रामजी 1 जगत भी वहीस्वरूप है। अपर कछ बना नहीं, घनशिलाकी नई अचिंत्य स्वरूप है, इसके ऊपर एक आख्यान है, सो श्रवणका भूषण है, तुझको कहता हौं, सो कैसा उपाख्यान है, जो द्वैत दृष्टिको नाश करता है, अरु ज्ञानरूपी कमलका प्रकाश होनेहारा सूर्य, अरु परम पावन है, सो तू श्रवण कर॥हे रामजी एक शिला बडी है, जो कोटि योजनपर्यंत तिसका विस्तार है, अनंत हैं। किसी ओरते तिसका अंत नहीं आता, अरु शुद्ध है, अरु निर्मल है,अरु