पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२८

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जावत्स्वभसुषुप्त्यभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६ (१७०९) भी सर्व परमार्थ घनरूप है,ताते संकल्परूपी कलनाको त्यागिकार तिसविवे स्थित होहु॥इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे शिलोपाख्यान समाप्तिवर्णनं नाम द्विशताधिकपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २५० ॥ द्विशताधिकैकपंचाशत्तमः सर्गः २५१, जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्यभाववर्णनम् । ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! जो पुरुष स्वभावसत्ताविर्षे स्थित भये हैं, तिनको जो यह चारौं आख्यात कहे हैं, इनते लेकर जेते शब्दार्थ हैं, सो शशेके सिंगवत असत भासते हैं, जगतका निश्चय तिनविषे नहीं रहता, सर्व ब्रह्मांड तिनको आकाशवव भासता है, आख्यातकी कल्पना भी कछु नहीं फुरती, अरु जेता कछु जगत् दृष्ट आता है, सो निराकार परमं चिदाकाशरूप है, परम निर्वाणसत्तासों युक्त भासता है, अरु तिसविषे निर्वाण हो जाता हैं, ताते वही स्वरूप है ॥ हे रामजी । जब इसप्रकार जानिकार तू तिस पदविषे स्थित होवैगा, नब बडे शब्दको करता भी तू निश्चयते पाषाण शिलावत् मौन रहेगा, देखेंगा, खावैगा, पीवैगा, सँधैगा, परंतु अपने निश्चयविषे कछुन हुरैगा, जैसे पाषाणकी शिलाविषे फुरणा कछु नहीं फुरता, तैसें तू रहेगा, जो चरणोंकारि दौड़ता जावैगा, तो भी निश्चयकार चलायमान न होवैगा, जैसे आकाश अचल है, जैसे सुमेरु पर्वत स्थिर है, तैसे तू भी स्थित रहेगा, क्रिया तौ सब करैगा, परंतु अंतरते क्रियाका अभिमान तुझको कछु न होवैगा, स्वभावसत्ताविषे स्थित होवैगा, जैसे मूढ बालक अपने परछायेविषे वैताल कल्पता है, सो अविचारसिद्ध है, विचार कियेते कछु नहीं निकसता, तैसे मूर्ख अज्ञानी आत्माविषे मिथ्या आकार कल्पते हैं, विचार कियेते सब आकाशरूप हैं, बना कछु नहीं, जैसे मरुस्थलविर्षे नदी तबलग भासती है, जबलग विचारकर नहीं देखता, विचार कियेते नदी नहीं रहती, तैसे यह जगत विचार कियेते नहीं रहता, चैतन्यरूपी रत्नका चमत्कार है, चेतन आत्माका चन फुरणेकरिकै जगतरूप हो खगा, खावेगा, पर्वा नू निश्चयते पाषा विषे स्थित हवे