पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८२९

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( १७१०) योगवासिष्ठ । भासता है ॥ राम उवाच ।। हे भगवन् ! इस जगत्का कारण स्मृति मैं मानता हौं, सो स्मृति अनुभवत होती है अरु स्मृतिते अनुभव होता है, स्मृति अरु अनुभव परस्पर कारणहैं,जबअनुभव होताहे,तबउसकीस्मृति भी होतीहै, वह स्मृति संस्कार बहार स्वप्नविषे जगतरूप हो क्यों भासती हैं ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह जगत् जो उपजा है, सो किसी संस्कारकारे नहीं उपजा,जो किसी स्मृतिका संस्कार होवे सो नहीं, तब क्या है ? काकतालीवत् अकस्मात फुरि आया है । हे रामजी ! यह जगत् आभासमात्र है, आभासका अभाव कदाचित् नहीं होता, काहेते. कि, उसका चमत्कार है, जो इतर कछु बना होवे, तौ तिसका नाश भी होवै, सो इतर तो कछ हुआ भी नहीं, नाश कैसे होवै, यह जगत् सत् भी नहीं; अरु असत् भी नहीं, अपने स्वभावविषे आत्मसत्ता स्थित है, जगत् तिसका आभास है, ॥ हेरामजी। तू जोस्मृतिकारण कहता हैं, सो कारणकार्यभाव आभास तहाँ भासतेहैं, जहाँ द्वैत है, स्वरूपविषे कछु कारण कार्यभाव नहीं,जैसे स्वप्नमें मरुस्थलविषेजल भासा,तिसविषेजल मानिकारे गया तो तू देख, आगे जाकर उसको उस जलकी स्मृति हुई, अथवा स्वप्नके व्यवहारकर्ताको स्वप्नांतर हुआ, तिस स्वप्नांतरविषे बहुरि जाय व्यवहार करता भया, तौ हे रामजी ! तू देख कि, उसकी स्मृति भी असत हुई, अरु जो उसने अनुभव किया सो भी असव है तैसे यह संसार भी है, कछु भेद नहीं ॥ हे रामजी ! ताते न जाग्रत है, न स्वप्न है, न कोऊ सुषुप्ति है, न तुरीया है, तो क्या है, अद्वैतसत्ता सर्व उत्थानते रहित चिन्मात्र स्थित है, तोते जगत् भी वहीरूप है, जो क्रिया भी दृष्ट आती है, तो भी कछु हुआ नहीं,जैसे स्वप्नविषे अंगना कंठसाथ आय मिलती है, तब उसकी क्रिया तौ कछु साची नहीं, तैसे यह क्रिया भी साची नहीं, अरु जाग्रत स्वप्न सुषुप्ति तुरीया इन शब्दका अर्थ स्वभाव निश्चय ज्ञानवान् पुरुषको है, शशेके शृंग अरु आकाशके फूलवत् असत् भासते हैं, जैसे वंध्याका पुत्र अरु जैसे श्याम चंद्रमा शब्द कहनेमात्र हैं, इनका अर्थ असत् है,तैसे ज्ञानीके निश्चयविषे पाँचो अवस्थाका होना असंभव है, अथवा सर्वदाकालविषे जाग्रत है, जाग्रत