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योगवासिष्ठ।

रूपी मृग विचरते हैं, अरु भोगरूपी तृणको आश्रय करतेहैं, सो भोगरूपी तृण कैसे हैं, देखनेमात्र सुंदर भासते हैं, परंतु तिनके नीचे गर्त है, जैसे गर्त ऊपर हरियावल तृण आच्छादन होते हैं, तिसको देखिकरि मृगके बालक भोजन करने लगते हैं, अरु गतविषे गिर पड़ते हैं, तैसे जीवरूपी मृगको रमणीय जानिकरि भोगने लगते हैं, तिनकी तृष्णा करि नरक आदिक जन्मविषे गिरते हैं, अग्निकी नाईं जलते हैं॥ हे रामजी! तुम ऐसे नहीं होना, जो कोऊ भोगकी तृष्णा करैगा, सो नरकरूपी गर्तविषे गिरेगा, ताते तुम मृगमतिको त्यागिकरि सिंहवृत्तिको धारहु, मोहरूपी हस्तिको सिंह होकरि अपने नखनसे विदारहु, भोगकी तृष्णाते रहित होना यह अर्थ है, भोगकी तृष्णावाले जीव जंबूद्वीपरूपी जंगलविषे मृगकी नाईं भटकते हैं, तिनकी नाईं तुम नहीं विचरना॥ हे रामजी! स्त्री जो रमणीय भासती हैं, तिनका स्पर्श अल्प कालविषे शीतल सुखदायक भासता है, परंतु चीकडकी नाईं है, जैसे चीकड़का लेप भी शीतल भासता है, परंतु तुच्छ है, जैसे संढा चीकड दलदलविषे फँसा हुआ निकसि नहीं सकता, तैसे यह भोगरूपी दलदलविषे फँसा हुआ निकसि नहीं सकता, ताते तू संतकी वृत्तिको ग्रहण कर, सो ग्रहण करना किसको कहते हैं, अरु त्याग करना किसको कहतेहैं, ऐसे विचारिकरि असत् वृत्तिका त्याग करौ. अरु आत्मतत्त्वको आश्रय करौ हे रामजी! यह देह अपवित्र है,अस्थिमांसरुधिरकरि पूर्ण है, अरु तुच्छ है, अरु दुष्ट इसका आचार है, देहके निमित्त भोगकी इच्छा करनी, इसकार परमार्थ कछु सिद्ध नहीं होता, देह औरने रची है, और करि चेष्टा करती है, औरने इसविषे प्रवेश किया है, दुःखको और ग्रहण करता है, जो दुःखका भागी होता है॥ संकल्पने देह रची है, अरु प्राणकरि चेष्टा करता है, अहंकार पिशाचने इसविषे प्रवेश किया है, अरु गर्जता है, मनकी वृत्ति सुखदुःखको ग्रहण करती है, अरु दुःखी जीव होता है, ताते आश्चर्य है॥ हे रामजी! परमार्थसत्ता एक है, अरु सर्वसमान है, इतर सत्ता तिसविषे कोई नहीं, जैसे पत्थर घन जड़ होता है, तिसविषे अपर कछु नहीं फुरता, तैसे सत्तामात्रते इतर अपर द्वैतसत्ता किसी पदार्थको नहीं जैसे पत्थर घनरूप है, तैसे परमात्मा घनरूप है,