पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३१

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(५७१२) यौगवासिष्ठ । करिकै हुई है सो भी उत्पन्न नहीं भई, अंतर अरु बाहर क्या कहौं, जैसे स्वप्नकी सृष्टि भासि आती है, सो अपनाही अनुभव होता है, वही सृष्टिरूप हो भासता है, वहीं तो अंतर बाहर कछु है नहीं, तैसे यह जगत् भी अंतर बाहर कछु है नहीं, सब भ्रमरूप है, जिसको इच्छा कहते हैं, स्मृति कहते हैं, विद्या अविद्या इछ अनिष्ट जेते कछु शब्द हैं सो सब आत्माके नाम हैं, आत्माते इतर अपर पदार्थ कछु वस्तु नहीं ॥ हे रामजी । जागिकार देख सब तेराही स्वरूप है, मिथ्याभ्रमको अगीकार कारकै क्यों इतर कछु देखता है, जैते कछु शब्द हैं, सो अर्थविना कहूँ नहीं, अरु शब्द अर्थका विचार संकल्पकार होता है, अरु संकल्प तब ऊरता है, जब चित्तविषे अहं अभिमान होता है, सो चित्त आत्मसारविषे लीन करु, जब चित्तको निर्वाण करैगा, तब सब जगत शांत हो जावेगा; जैसे दर्पणविषे जगवरूपी प्रतिबिंब होता है, सो जगत कछु वस्तु नहीं जब चित्त निवाण हो जावैगा, तब द्वैत कल्पना सब मिटि जावेगी, यह जो मोक्षशास्त्र मैं तुझको कहा है, इसके अथको विचार, अरु संकल्पकोत्यागिकार अपने परमानंद स्वरूपविषे स्थितहोहु॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जागृत्स्वप्नसुषुप्त्यभाववर्णनं नाम द्विशताधिकैकपंचाशत्तमः सर्गः॥ २०१॥ द्विशताधिकडिपंचाशत्तमः सर्गः २५२. . | सालभजनकोपदेशवर्णनम् । । वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी ! यह जगत् किसी कारणकारे उत्पन्न नहीं भया, जैसे समुद्रविषे तरंग स्वाभाविक फुरते हैं, तैसे संविसतासों आदि सृष्टि फुरी है, जैसे जल स्वाभाविक द्वताकारकै तरंगरूप अपनी सत्ताकार बढता जाता है, तैसे आत्मसत्ताकार जगविस्तार होता हैं, सो आत्माते इतर कछु, नहीं, आत्मसत्ताही इसप्रकार भासती है, जब आत्मसत्ता चिन्मात्रका अभ्यास बहिर्मुख फुरत है, तब