पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३२

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सालभजनकौपदेशवर्णन-निवाणकरण, उत्तरार्द्ध ६.१ १७१३} अंतःकरण चतुष्टांग होते हैं, तिसविर्षे जो निश्चय होता है, तिसका नाम नेति हुआ है, प्रथम अकस्मातते स्वाभाविकही कारणविना फ़ार आया है, वह आभासमात्र है, जब वह दृढ होगया, तब नेति स्थित भई, अरु वास्तवते द्वैत कछु बना नहीं, जो सम्यकदर्शी पुरुष हैं, तिसको सब आत्मा हृष्ट आता है, जैसे पत्र, फूल, फल, दास, सब वृक्ष ऊपर है, इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी! वृक्षते ज्यों फूल फल टास होतेहैं सो किस कारणकार बुद्धिपूर्वक तौ नहीं होते, तैसे यह जगत् भी जान जो सम्यकदर्शी है तिसको भिन्न भिन्न रूप भी पत्र टास आदिक विस्तार एक वृक्षरूप भासता है, तैसे यथार्थ ज्ञानीको सर्व आत्माही भासता है, अरु मिथ्यादृष्टिको भिन्न भिन्न पदार्थ भासते हैं, सम्यकुदर्शीको एक वृक्षही भासता है । हे रामजी! वृक्षके देखनेवाला भी अपर होता है, अरु दृष्टौतरविषे दूसरा कोऊ नहीं, चैतन्य आत्माका आभासही चैतन्य है, वही चैतन्य रूप हो भासता है, तिस चैतन्य आभासको असम्यक् दृष्टिकारकै भिन्न भिन्न पदार्थ देखते हैं, सम्यक्दश सबको आत्मारूप देखता है, जैसे पत्र आपको भिन्न जानें, फूल फल सब आपको भिन्न भिन्न जानैं, वृक्ष सब अपना आप जानता है, ज्ञानी अज्ञानी सब आमरूप हैं, जैसे कंधकेऊपर पुतलियां लिखी होती हैं, सो कंधते इतर कछु नहीं, कंधरूप हैं, तैसे स्वर्गगत आत्मरूपी कंधके चित्त हैं, सो आत्माते इतर कछु नहीं जैसे आकाशविषे शून्यता है, जैसे फूलविषे सुगंधता है, जैसे जलविर्षे द्रुवता है, जैसे वायुविषे स्पंद है, जैसे अशिविषे उष्णता हैं, तैसे ब्रह्मविषे जगत् है, जैसे आकाश अरु शून्यताविषे भेद कछु नहीं, जैसे फूल अरु सुगंधविषे भेद कछु नहीं, जहाँ जल है तहाँ द्वता भी है, जहाँ अग्नि है, तहां उष्णता है, जहां हाय है, तहां स्पंद भी है, तैसे , जहाँ चिसत्ता है, तहां जगत् भी है। जगत् अरु ब्रह्मविषे भेद कछु नहीं ॥ हे रामजी । जगत् आत्माको अभ्यास है, ताते वहीरूप है, यह जगत् भी अचैत्य चिन्मात्र है, अरु जो तू कहै, अचैत्य चिन्मात्र है, तौ पृथ्वी पहाड आदिक आकार क्यों भासते हैं, तौ हे रामजी! नित्य प्रति जो तुझको स्वम आता हैं, तिस १०८