पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

सालभजनकोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरणं, उत्तरार्द्ध ६. १ १७१५) सो भासैगा, अरु यह जगतरूपी स्वप्न है, तिसविषे स्वर्गादिक इष्ट पदार्थ हैं, अरु नरकादिक अनिष्ट पदार्थ हैं, तिनके प्राप्ति होनेका साधन धर्म अधर्म है, धर्म स्वर्गसुखका साधन है, अधर्म नरकदुःखका साधन है, जबलग अविद्यारूपी निद्राविषे सोया हुआ है, तबलग इसको यथार्थ जानता है, जब जानैगा, तब सब आत्मरूप होवैगा, इष्ट अनिष्ट कोऊ न रहेगा, अरु जेता कछु जगत् भासता हैं, सो सब अनुभवरूप है, सो अनुभव सदा जागृत ज्योति है, तिसको जान, अरु जिन पुरुषोंने इस अनुभवको नहीं जाना, सो उन्मत्त पशु हैं, काहेते कि, वे आत्मबोधते शून्य हैं, आत्माको सदा समीप नहीं जानते, इसते उन्मत्त अपना आप भूलि जाता है, जैसे किसीको पिशाच लगता है, तब उसको अपना स्वरूप विस्मरण हो जाता है, पिशाचही देहविषे बोलता है, तैसे जिसको अज्ञानरूपी भुत लगा है, सो उन्मत्त भया हैं, अपने आत्मस्वरूपको नहीं जानता, अरु विपर्यय बुद्धिकारकै देहादिकको आत्मा जानता है, विपर्यय शब्द करता है, अरु जिनको स्वरूपविषे अहंप्रतीति है, तिनको सर्व जगत् आत्मरूप भासता है ॥ हे रामजी ! जो आदि सृष्टि किसी कारणकरि बनी होती तो इसके पीछे प्रलय आदिकविषे कछु शेष रहता सो तौ अत्यंत अभाव होता है, ताते सब जगत् अकारण है, जैसे चितामणिते अकारण पदार्थ दृष्ट आता है, तैसे यह अकारण है, न कहूँ संस्कार है, न स्मृति है, सब आत्माके पर्याय हैं, आत्माते इतर कछु नहीं, ताते सर्व जगत् आत्मरूप जान ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् । जो संस्कारते अनुभव नहीं होता, अरु अनुभवते स्मृति नहीं होती, तौ इसप्रकार प्रसिद्ध क्यों दृष्ट आते हैं ? ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! यह संशय भी तेरा दूर करता हौं, जैसे हस्तीके बालक मारनेविषे सिंहको यत्न कछु नहीं होता, तैसे इस संशयके नाश करनेको मुझे यत्न कछु नहीं, जैसे सूर्य के उदय हुये तिमिरका अभाव होता है,तैसे मेरे वचनोंकार तेरा संशय दूर हो जावेगा । हे रामजी । जेता कछु जगत् तू देखता है, सो सब चिन्मात्रस्वरूप है, तिसते इतर कछु नहीं, जैसे शिल्पी स्तंभविषे पुतलियां कल्पता है, परंतु पुतलियां कछु बनी नहीं, उसके चित्तविषे