पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३५

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( १७१६) योगवासिष्ठ । पुतलियोंका आकार हैं, तैसे आत्मरूपी स्तंभ हैं, तिसविर्षे चित्तरूपी शिल्पी पुतलियां कल्पता है । हे रामजी ! स्तभसों पुतलियां निकासे तौ भी निकसती हैं, परंतु आत्मा तौ अद्वैत है, निराकार हैं, तिसविधे अपर कछु नहीं निकसता, तिसविषे वाणीकी भी गम नहीं, चेतनमात्र है, तिसविषे अहं ऐसा जो ऊरणा फुरा है, तब आपको चेतन जानत भया, बहुर आगे शब्दके अर्थ कल्पे हैं, सो शुद्ध अधिष्ठान चेतन आपको जानत भया, सोई स्वर्ग हैं, ईश्वर, जीव, ब्रह्मा, इं, वरुण, कुबेर, पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, देश, काल इत्यादिक शब्द अरु अर्थ कुरणेहीविषे हुये हैं, जैसे एकही समुद्रविषे द्रुवताकारकै आवर्त तरंग फेन बुबुदे नाम होते हैं, सो सब ब्रह्मके नाम हैं, ब्रह्मते इतर कछु नहीं, ब्रह्मही अपने आपविषे स्थित है, वही ऊरणेकार जगत् आकार हो भासता है, फुरणेते रहित जगत् आकार मिटि जाता है, परंतु फुरणे अफुरणेविषे ब्रह्म ज्योंका त्यों हैं, जैसे स्पंदनिस्पंदविषे वायु ज्योंका त्यों है, तैसे ब्रह्म ज्योंका त्यों है, अरु जेते कछु पदार्थ भासते हैं, सो सब ब्रह्मस्वरूप हैं, जैसे स्वप्नविषे अपनाही अनुभव पहाड़े वृक्ष आदिक नानाप्रकारका जगत् हो भासता है, तैसे यह ब्रह्मसत्ता जागृत जगरूप हो भासती है, तिसविषे कहूँ अंतवाहक हो भासता है, कहूँ आधिभौतिक भासता है, कहूँ ईश्वर, कहूँ जीव हो भासता है, इसते आदि लेकर शब्द अर्थसंयुक्त जीव फुरता गया है, सो ब्रह्मसत्ता इसप्रकार स्थित भई है, जैसे स्तंभविषे पुतलियां स्तंभरूप होती हैं, तैसे आत्माकाश विषे जगत् आत्मस्वरूप है, आत्माते इतर कछु नहीं, जैसे तिसविषे जगत् आभास है, तैसे स्मृति अनुभव भी आभास है, स्मृति जो संस्कार हैं, तिनते जगतकी उत्पत्ति तब कहिये जब स्मृति आभास न होवे,सो तौ स्मृति संस्कार भी आभास है, यह जगतका कारण कैसे होवै, स्मृति भी तब होती है, जो प्रथम जगत होता है, सो जगत नहीं तो स्मृति कैसे होवै, ताते जगत् अभासंमात्र है, इसका कारण कोऊ नहीं ॥ हे रामजी ! स्मृति संस्कार जगतका कारण तब होवैजो कछु जगत आगे हुआ कहाँ सो कछु न था, अरु अनुभव तिसका होता है, जो पदार्थ भासता है, सो तौ इसजगत्के