पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८३९

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| ( १७२० ) । योगवासिष्ठ । विषे धूड नहीं होती,जैसे सूर्यविषे तम नहीं होता, तैसे उनविषे लोभ जो है, इंद्रियके इष्ट विषयकी तृष्णा सो नहीं होती,तिनते रहित होकर तिन्होंने विश्राम पाया है, यह आश्चर्य है, अणुते अणु होकार अरु मह- होते महत्व होकर केवल विश्रामवान् हुये हैं ॥ हे रामजी। जो आत्मस- चाकी ओरते सोये पडे हैं, तिनको दुःख होता है, अरु ज्ञानवान द्वैत जगत्की और जड हुये हैं, अरु अपने स्वरूपविष चेतनको दुःख कछ नहीं; वह जाग्रतकी ओरते सोये हैं, तिनको अविद्यक जो जगत है, दृश्यसंबंध सो दूर होगया है, वह इस ओरते सोये हैं,उनको बहुरि दुःख कैसे होवै, वह पुरुष सदा अद्वैतरूप है,जो अनंत जगत्को करताहै,अरु , आपको सदा अकर्ता जानता है, ऐसे आश्चर्यपदविषे तिन्होंने विश्राम पाया है, जगत्के समूहसत्ता समानविषे स्थितकारिकै विश्राम पाया है, यह आश्चर्य हैं, अह वह संपूर्ण क्रियाको करते हैं, परंतु सदा अक्रिय- पदविपे स्थित हैं, संपूर्ण पदार्थविषे स्वप्नवत् जानिकार सुषुप्ति भये हैं, आकाशते भी अधिक सूक्ष्म हुये हैं, आत्मसत्ताविषे विश्राम पाये हैं, सो आत्मसत्ता आकाशको भी व्याप रही हैं, तिसको आत्मवत् जानिकारकै स्थित भये हैं, परम स्वच्छ जो पद है, तिसविषे सर्व शब्द अर्थ आकाशरूप हो जाते हैं, आकाश भी आकाश हो जाता है, तिस पदविचे विश्राम किया है सो आश्चर्य है, अरु नेत्र उसके खुले हुये हैं, अरु सुषुप्तिविषे स्थित हैं, क्या सुषुप्ति है, जो हग अरु दृश्य भाव उनका दूर होगया है, अरु जगतके प्रकाशते रहित हैं, अरु परम प्रकाशरूप हैं ॥ हे रामजी | बाह्य जी भोगपदार्थ है; तिनते रहित हैं, अंत आत्मविषे स्थित हैं, प्रगट जो सोता है,अरु सुषुप्तिविषे जागता है,अरु जाग्रतते उसको सुषुप्ति है,वह सुषुप्ति साथ सोया है,वह कर्म करता है,परंतु कर्ताकरणभावते रहित है, क्रोध भी करता है, क्रोधके फुरणेते रहित है, सर्व ओरते प्रकाशवान होकार विराजते हैं, निर्भय होकारविश्राम करते हैं, कामना करते भी दृष्ट आते हैं, परंतु तृष्णाते रहित हैं, निःसंकल्प पदविषे स्थित भये हैं, यह आश्चर्य है,जिस क्रियाकी ओर देखते हैं तिसी