पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४०

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जीवन्मुक्तिवाह्यलक्षणव्यवहारवर्णन–निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६.(१७२१) और तिनको शांति भासती है, काहेते कि एक मित्र तिनके साथ रहता हैं, तिसकरि दुःख कोऊ तिनके निकट नहीं आता ।। इति श्रीयोगवासि- ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तलक्षणवर्णनं नाम द्विशताधिकत्रिपंचाशत्तमः सर्गः ॥ २५३ ॥ द्विशताधिकचतुःपंचाशत्तमः सर्गः २५४. जीवन्मुक्तिवाह्यलक्षणव्यवहारवर्णनम् । राम उवाच ।। हे भगवन् । वह मित्र कौन है,ज्ञानीका कोऊ कर्म मित्र है, अथवा आत्माविषे विश्रामका नाम मित्र है, यह संक्षेपकार सुझको कहो ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी! एक अकृत्रिम कर्म है, अपना सुकर्म उनका नाम है, अपनाही जो प्रयत्न है सो उनका मित्र है, सो मैं कहता हौं सो सुन, आध्यात्मिक अधिदैविक अधिभौतिक यह तीन ताप सदा अज्ञानीको जलाते हैं, सो ज्ञानीको नहीं भासते, जो बडा कष्ट आनि प्राप्त होवे सो लंघना कठिन है, बहु कोप होवै सो भी उसको स्पर्श करता नहीं, जैसे मलको जल नहीं स्पर्श करता, तैसे ज्ञानीको कष्ट नहीं स्पर्श करता,काहेते कि मित्र उसकेसाथ रहता है,जैसे बालकका मित्र बाल होता हैं, सो बडा भय भी उनका हेतु होता हैं, तैसे चिरकाल जो ज्ञानवान्ने अभ्यास किया। सो अभ्यास इसका मित्र हो रहता है,दुष्ट क्रियाकी ओर वह विचरने नहीं देता, अरु शुभकी ओर वतवता है, जैसे पिता पुत्रको अ- शुभकी ओरते वर्जिकारे शुभकी ओर लगाता है, तैसे उसको विचाररूपी मित्र तृष्णाते वर्जना करता है,अरु आत्माकी ओर स्थिर करता है, अरु रागद्वेषरूपी जो अग्नि है, तिसते निकासकार समतारूपी जो शीतलता है, तिसको प्राप्त करता हैं, ऐसा उसका विचाररूपी मित्र है, अरु जेते दुःख केश है, तिन सबते वह तराय ले जाता है, जैसे मलाह नदीते तराय ले जाता है । हे रामजी ! विचाररूपी मित्र बहुत सुंदर है, अरु शांतरूप है, सर्व मैलको जलावनेहारी अग्नि है, जैसे स्वर्णके मैलको