पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४१

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(१७२२) योगवासिष्ठ ।, अग्नि जलायकरि निर्मल करती है, तैसे विचाररूपी अग्नि रागद्वेषरूपी मलको जलाती है, अरु जब विचार रूपी मित्र आता है, तब स्वाभाविक इसकी चेष्टा निर्मल हो जाती है, वेदउक्त विचारता है, अरु सब कोङ उसको देखकर प्रसन्न होता है,दया अरुकोमलता अमान अक्रोधआदिक गुण स्वाभाविक आनि प्राप्त होते हैं, जैसे तिलविषे तेल-रहता है, जैसे फूलविषे सुगंधि रहती हैं, अग्निविषे उष्णता रहती है, तैसे विचारकरि ज्ञानीविषे शुभ आचार रहते हैं, अरु विचाररूपी मित्र शूरमा है, जो कोऊ शत्रु होता है, प्रथम तिसको मारता है, अज्ञानरूपी शत्रुको नाश करता है, जैसे सूर्य तमको नाश करता है, अरु दीपक प्रकाशवत् साथ होता है, विषयभोगरूपी अंधकूप जो गंदगी है, तिसविषे गिरने नहीं देता, सर्व ओरते रक्षा करता है, अरु जिस ओरते वह पुरुप जाता है, तिस ओरते सबको प्रसन्नता उपजती है । हे रामजी । वचन तिसका ऐसा होता है, जो कोमल अरु मधुर अरु स्निग्ध क्षोभते रहित उदार आत्मा अरु लोकपर उपकार अरु प्रसन्नताको लिये बोलना, अरु सुहृ- दृता शांतरूप अरु परमार्थके कारण । हे रामजी । वचन तौ तिसके ऐसे होते हैं, प्रसन्नताको लिये हुये अरु आप भी सदा प्रसन्न रहता है, जैसे पतिव्रता स्त्री भतरको सदा प्रसन्न रखती है, तैसे विचाररूपी मित्र इसको सदा प्रसन्न राखता है,सदा शुभ आचारविषे राखता हैं,दान तप यज्ञादिक जो शुभ क्रिया हैं, सो आपही करता है,अरुलोकोंतेभी करावता है,अरु जिसके अंतरविषे विवेकरूपी मंत्री आता है, तहाँ अपने परिवारको भी साथ ले आता है ॥ राम उवाच ॥ हे भगवन् ! उसका परिवार कौन है, अरु उसका स्वरूप क्या है, अरु उनका अचार क्या है, संक्षेपते सबही कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी । स्नान दान तपस्या ध्यान यह चारों उसके बेटे हैं, स्नान तौ यह है जो सदा पवित्र रहता है, यथायोग्य अरु यथाशक्ति दान करता है, अरु बाहरी वृत्तिको स्थिर अंतर करना,इसका नाम तप है, अरु आत्माकी वृत्तिविष चित्तको लगावना, इसका नाम ध्यान है, यह चारों उसके बेटे हैं, हे आत्मदर्शी, परंतु वृत्तिको सदा स्वाभाविक अंतर्मुख व्यवहार होता है, अरु मुदिता इसकी स्त्री है, सदा