पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४२

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जीवन्मुक्तिबाह्यलक्षणव्यवहारवर्णन-निर्वाणकरण, उत्तरार्द्ध ६. (१७२३) प्रसन्न रहना इसका नाम मुदिता है, सो नमस्कारके योग्य है, जैसे चंद्रमा द्वितीयाकी रेखाको देखिकर सब को प्रसन्न रहता है, अरु नमस्कार करता है, जैसे तिसको देखिकर सब कोऊ प्रसन्न होता है, अरु नमस्कार करता है, अरु मुदितारूपी स्त्री साथ एक सहेली रहती है, करुणा अरु दृया तिसका नाम है, अरु समतारूपी द्वारपालनी सन्मुख खड़ी रहती है, जब विवेक राजा अंतःपुरविणे आता है, तब सन्मुख होकार सब स्थान दिखाती हैं, अरु सदा संगी रहती है, अरु जिस ओर राजा देखता है तिस ओर समताही दृष्ट आती है, सो आनंदको उपजानेहारी है,सो दो पुत्र साथ लेकर पुरीविषे विचरती है, जिस ओरते राजा भेजता है, तिस ओरते धैर्य अरु धर्मको लिये फिरती हैं, जब राजा असवार होकर चलता है, तब वह भी तमरूपी वाहनपर आरूढ़ होकार राजाके साथ जाती है, जब राजा शनुसाथ लड़ाई करता है, सो शत्रु कौन हैं, पांचो विषय शत्रु हैं, तब धैर्य संतोष मंत्री मंत्र देता है, तब विचाररूपी बाणसाथ तिनको नष्ट करता है। हे रामजी। विचार तिसके सदा संग रहता है, अरु सब कार्यको करता है, यह स्वाभाविक चेष्टा उसते होती है, अरु आप सदा अमान रहता है, कर्तृत्व अरु भोकृत्वका अभिमान तिसको कोऊ नहीं फुरता, जैसे कागजके ऊपर मूर्ति लिखी अभिमानते रहित होती है, तैसे वह अभिमानते रहित है, अरु जो परभार्थनिरूपणते रहित निरर्थक वचन हैं, तिनके बोलनेते पत्थरकी शिला वत् अँग है,अरु निरर्थक संबंध सुननेते बहरा है,जैसे पाषाण नहीं सुनता, अरु जो क्रिया शास्त्र लोककरि निषेध है, तिसकी ओरते शव है जैसे शवसों कछु किया नहीं होती, तैसे उसको क्रियाका उत्थान नहीं होता जहां ज्ञानवान् अरु जिज्ञासीकी सभा होती है, तहाँ परमार्थके निरूपणको शेषनाग अरु बृहस्पतिकी नई होता है, सविधान इत्यादिक जो शुभ क्रिया हैं, सो उससों स्वाभाविक होती है, जैसे मूर्य चंद्रमा अरु अग्निविषे प्रकाश स्वाभाविक होता है, तैसे उनविषे स्वाभाविक शुभ क्रिया होती हैं ॥ इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तिबाह्यव्यवहारवर्णां नाम द्विशताधिकचतुःपंचाशत्तमः सर्गः ॥२५४ ॥