पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

द्वैतैकताभाववर्णन-निर्वाणप्रकरण, उत्तराई ६: ( १७२५) भासता है, सो भी उसीका स्वभाव है, जैसे रत्नका स्वभाव चमत्कार होता है, अग्निका स्वभाव उष्णता है, जलका स्वभाव इवना है, पवनका स्वभाव ऊरणा है, तैसे ब्रह्मका स्वभाव जगत है, जैसे सूर्यको किरणोंविषे जल भासता है, तैसे आत्मविषे जगत् भासता है । हे रामजी ! यह आश्चर्य है, कि अज्ञानी सत्को असत् जानते हैं, अरु असवको सत् जानते हैं, जो अनुभवसत्ता है, तिसको छिपाते हैं, अरु शशेके श्रृंगवत् जगत है, तिसको प्रत्यक्ष जानते हैं, सो सुख हैं, तिनको क्या कहिये, सबका प्रकाशक आत्मसत्ता है, जिसको तू सूर्य देखता है, सो वही परम सूर्य देव होकार भासता है, चंद्रमा अरु अनि उसीके प्रकाशकार प्रकाशते हैं, सबका प्रकाश तेजसत्ता वही है, जैसे सूर्यको किरणों विषे सूक्ष्म अणु होती हैं, तैसे आत्मसत्ताविषे सूर्यादिक भासते हैं, जिसको साकार कहते हैं, अरु निराकार कहते हैं, सो सब शशेके सिंगवत हैं, ज्ञानवानको ऐसे भासता है, जो जगत् कछु उपजा नहीं तो मैं क्या कहौं, जहां सब शब्दका अभाव हो जाता है, तिसके पाछे चिन्मात्रसत्ता शेष रहती है, तहां शून्यका भी अभाव हो जाता है ।।हे रामजी । जिनको तू जीता जानताहै, सो जीता भी को नहीं, जो जीता नहीं तौ सुआ कैसे होवे, जोकहिये जीता है, तो जैसे जीता है, तैसे मृतक है, मृतक अरु जीतेविषे कछु भेद नहीं, ताते सर्व शब्दते रहित अरु सबका अधिष्ठान वही सत्ता है, तिसविषे नानात्व भासता भी है, परंतु हुआ कछु नहीं, पर्वत जो स्थूल दृष्ट आते हैं, सो अणुमात्र भी नहीं, जैसे स्वप्नविषे पृथ्वी आदिक तत्त्व भासते हैं, परंतु कछु हुये नहीं, केवल आत्मसत्ता अपने आपविषे स्थित हैं, तिसते जगत् भासता है, ॥ हे रामजी 1 जो परमार्थसत्ताते जगत् भासि आया सो अपर तौ कोऊ न हुआ क्यों,ताते वही सत्ता जगतरूप हो भासती है, कई कहते हैं, इस आत्मविषे हैं,कईकहते हैं,इस आत्मविषे नहीं, सो आत्माविषे कछु दोनों शब्दका अभाव हैं,अरु अभावका भी अभाव है, यह भी तेरे जाननेके निमित्त कहता हौं, स्वस्थ है, परम् शतरूप हैं, उस अरु तेरेविषे कछु भेद नहीं, परिपूर्ण अच्युत अनंत अद्वैत है, सोई जगतरूप होकर भासता है, जैसे कोऊ पुरुष शयन