पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/८४५

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(१७२६) योगवासिष्ठ । करता है, तब सुषुप्तिविषे अद्वैतरूप हो जाता है, बहुरि सुषुप्तिते स्वप्न ऊरि आता है, बहुरि सुषुप्तिविषे लीन हो जाता है, तौ उपजा क्या अरु लीन क्या भया, स्वप्नके आदि भी अद्वैतसत्ता थी अरु अंत भी वही रही, अरु मध्य जो कछु भासा, सो भी वहीरूप हुआ, आत्माते इतर तौ कछु न हुआ क्यों, ताते जेता कछु जगत् भासता हैं, सो ब्रह्मस्वरूप है, ब्रह्मते इतर कछु नहीं ॥ हे रामजी ! हमको तौ सदा अनुभवरूप जगत् भासता है, हम ऐसे नहीं जानते कि जो अज्ञानीको क्या भासता है, जैसे स्वप्नकी सृष्टिते जागा है, तिसको अद्वैत,अपना आप भासता है, तैसेही तुरीयाविषे भासता है, तुरीया अरु जाग्रतविषे भेद कछु नहीं, जाग्रतही नाम तुरीयाका है जाग्रत तुरीयारूप है, यह भी क्या कहनाई, सबही अवस्था तुरीयारूप है,तुरीया नाम है जाग्रतसत्ताका, जो अनुभव साक्षी ज्योति है,सोजाग्रविषेभी साक्षी अनुभवरूप,स्वप्नविषे साक्षीरूप है; सुषुप्तिविषे भी साक्षीरूप है, ताते सब तुरीयारूप है,परंतु जिसको स्वरूपका अनुभव हुआहै,तिस ज्ञानवान्को ऐसेही भासताहै,अरुअज्ञानीको भिन्न भिन्न अवस्था भासती है,हे रामजी 1 एक पदार्थका वृत्तिने त्यागकिया है, अरु दूसरे पदार्थविषे लगी नहीं, वह जो मध्यविषे अनुभवज्योति हैं, तिसको तू आत्मसत्ता जान, अरु तिसविषे जो बहुरि कछु भासा,सो भी वहीरूप जान, जैसे जाग्रतको त्यागिकार स्वप्नके आदि साक्षी अनुभवमात्र होता है, तिस सत्ताविषे स्वप्नशरीर अरु पदार्थ भासते, सो भी आत्मरूप हैं, तैसै जो कछु जाग्रत शरीर अरु पदार्थ भासते हैं सो आत्मरूप हैं. जब तुम ऐसे जानोगे तब तुमको दुःख को स्पर्श न करैगा, जैसे स्वप्नकी सृष्टिविणे अपने स्वरूपकी स्मृति आई, तब दुःख भी अदुःख होता है, बोलना चालना खाना पीना देना इनते आदि लेकर शब्द अरु अर्थ होते हैं, अरु युद्ध कर्म द्वैतरूप होते हैं, सो सब अद्वैत अपना आप हो जाते हैं, व्यवहार भी सब करता है परंतु अपने निश्चयविषे कछु नहीं ऊरता, तैसे जो पुरुष अपने स्वरूपविषे जागेहें, तिनको सब जगत् आत्मरूपही भासता हैं, जैसे अग्निविषे उष्णता स्वाभाविक है, जैसे बरफविषे शीतलता स्वाभाविक है, तैसे ज्ञानवान्को